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४४ | जैन न्याय-शास्त्र : एक परिशोलन
वस्तु न एकान्त भिन्न और न एकान्त अभिन्न ही है। द्रव्य दृष्टि से अभेद और पर्यायदृष्टि से भेद भी है । वस्तु नित्य भी है, वस्तु अनित्य भी है। वस्तु एक भी है, वस्तु अनेक भी है । वस्तु सत् भी है, वस्तु असत् भी है। भगवान् महावीर की यही तो अनेकान्त दृष्टि है। इसी की व्याख्या हैनयवाद । इसी की व्याख्या है-स्याद्वाद । स्याद्वाद और सप्तभंगी
जैन आगमों में स्याहाद और विभज्यवाद शब्दों का अनेक स्थानों पर प्रयोग किया गया है। दोनों ही शब्द जैन-दर्शन में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं । जैन दर्शन के मर्म को समझने के लिए अत्यन्त ही महत्वपूर्ण शब्द हैं। विभज्यवाद का प्रयोग तो बौद्ध पिटक मज्झिम निकाय में भी हआ है । भगवान् बुद्ध ने अपने आपको विभज्यवादी कहा है, एकांशवादी नहीं । जैन परम्परा के सूत्रकृतांग-सूत्र में, इसी शब्द का प्रयोग किया है । भिक्षु को कैसी भाषा का प्रयोग करना चाहिए, इस सम्बन्ध में कहा गया है कि विभज्यवाद का प्रयोग करे । जैन दर्शन में इस शब्द का प्रयोग अनेकान्तवाद एवं स्याद्वाद के अर्थ में किया गया है। जिस अपेक्षा से जिस प्रश्न का उत्तर दिया जा सकता हो, उस अपेक्षा से उसका उत्तर देना ही स्याद्वाद है । अतः अनेकान्तवाद, स्याद्वाद, विभज्यवाद और अपेक्षावाद समानार्थक शब्द हैं।
भगवती-सूत्र में महावीर और जयन्ती का संवाद, महावीर और गौतम के संवाद तथा महावीर और तापमों के संवाद-यह सिद्ध करते हैं, कि भगवान महावीर अनेकान्त और स्याहाद सिद्धान्त के प्रतिपादक थे । किसी भी प्रश्न का उत्तर वे एकान्तवाद से नहीं देते थे, अनेकान्तवाद से ही दिया करते थे। उनकी दृष्टि में सत्-उत्पाद, व्यय और ध्र वत्वभाव से संयुक्त था । गणधर गौतम को भी उन्होंने यही दृष्टि प्रदान की थी, जिसके आधार पर गणधर ने चतुर्दश पर्यों की संरचना की थी। जैन दर्शन का यह मूल सिद्धान्त है। जैन दर्शन में सप्तभंगी
वस्तु में अनेक धर्म हैं । किसी एक धर्म का कथन किसो एक शब्द से होता है। यह सम्भव नहीं कि अनेकान्तात्मक वस्तु के सभी धर्मों का वर्णन कर सकें। क्योंकि एक वस्तु के सम्पूर्ण वर्णन का अर्थ है-सभी वस्तुओं का सम्पूर्ण वर्णन । अतः वस्तु का कथन करने के लिए दो दृष्टियाँ हैं-सकलादेश और विकलादेश । सकलादेश का अर्थ है-किसी
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