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४२ | जैन न्याय- शास्त्र : एक परिशीलन
इन्द्रियम्य वस्तु का स्थूल रूप व्यवहार की दृष्टि से यथार्थ है । इस स्थूल रूप के अतिरिक्त वस्तु का सूक्ष्म रूप भी होता है, जो इन्द्रियों का विषय नहीं हो सकता । वह केवल श्रुत या आत्म- प्रत्यक्ष का विषय होता है । वस्तुतः यही निश्चय दृष्टि अथवा निश्चयनय कहा जाता है । निश्चय और व्यवहार में यही अन्तर है, कि व्यवहार वस्तु के स्थूल रूप को ग्रहण करता है और निश्चय सूक्ष्म रूप को । आचार्य कुन्दकुन्द ने द्रव्य और तत्व का जो वर्णन किया है, वह निश्चयप्रधान वर्णन है । आचार्य व्यवहारनय को भी स्वीकार करते हैं । लेकिन गौण रूप में । समयसार तो एकदम निश्चय का कथन करता है । यही कारण है कि कुन्दकुन्द दर्शन, सांख्य तथा वेदान्त के निकट पहुँच गया है ।
अर्थनय और शब्दनय
आगमों में स्पष्ट रूप में सप्त नयों का वर्णन मिलता है | भगवती सूत्र, स्थानांग सूत्र और अनुयोगद्वार सूत्र आदि में नयों की संख्या और स्वरूप में काफी मतभेद रहे हैं । आगमगत नय, दर्शनगत नय और तर्कगत नयों में बहुत भिन्नता रही है । अनुयोगद्वारसूत्र में शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत को शब्दनय कहा गया है । बाद में नयों को दो भागों में विभक्त किया गया - अर्थनय और शब्दनय । जो नय अर्थ को अपना विषय बनाते हैं, वे अर्थनय हैं । नेगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र - अर्थ को विषय करते हैं | अतः ये चार अर्थनय हैं । शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत - ये तीन शब्द को विषय करते है । अतः ये तीन शब्दनय हैं ।
नयों के सात भेद
जैन-दर्शन में नय के सात भेद प्रसिद्ध हैं- नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत । आगम और दिगम्बर ग्रन्थ इस परम्परा का समर्थन करते हैं । दूसरी परम्परा नयों के छह भेद मानती है । इस परम्परा के अनुसार नैगम नय स्वतन्त्र नय नहीं है । आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने स्वरचित सन्मति तर्क ग्रन्थ में इस मान्यता की जोरदार स्थापना की है । उनकी यह अपनी ही परिकल्पना है । अन्यत्र कहीं पर भी इस मान्यता का उल्लेख नहीं है । न आगमों में और न श्वेताम्बर - दिगम्बर साहित्य में । तीसरी परम्परा तत्त्वार्थ सूत्र और उसके भाष्य की है । इस परम्परा के अनुसार मूलरूप में नयों के पाँच भेद हैं- नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द । इनमें से प्रथम नैगमनय के दो भेद हैं - देशपरिक्षेपी और सर्वपरिक्षेपी । अन्तिम शब्दनय के तीन भेद हैं- साम्प्रत, सम
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