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जैन दर्शन में प्रमाण व्यवस्था | ४१
चली आ रही है । श्रुत का अर्थ है, जो सुना गया हो। परम्परा से जिसे सुनते आए हैं, वह श्रुत होता है । इसे शास्त्र-ज्ञान और आगम भी कहते हैं । श्रत के दो उपयोग होते हैं-सकलादेश और विकलादेश । सकलादेश को प्रमाण या स्याद्वाद कहते हैं । विकलादेश को नय कहते हैं। धर्मान्तर की अविवक्षा से किसी एक धर्म का कथन, विकलादेश कहा जाता है । स्याद्वाद या सकलादेश द्वारा सम्पूर्ण वस्तु का कथन होता है। विकलादेश अर्थात् नय द्वारा वस्तु के किसी एक देश का कथन होता है।
__वस्तु अनेकधर्मात्मक है-अनेकांतात्मक है । वस्तु का ज्ञान नय एवं प्रमाण से होता है । अनेकान्तात्मक वस्तु के कथन की दो प्रकार की मर्यादा के कारण स्याद्वाद और नय का भिन्न-भिन्न निरूपण किया गया है। अनेकांतवाद और नय, स्याद्वाद और सप्तभंगी, जैनदर्शन के विशिष्ट तथा गम्भीर सिद्धान्त हैं। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने स्वरचित सन्मति-तर्क में अनेकान्त और नयों का विस्तार से वर्णन किया है । आचार्य समन्तभद्र ने स्वरचित आप्तमीमांसा में स्याहाद और सप्तभंगी का सुन्दर वर्णन किया है । नय भी सप्त हैं और भंग भी सप्त हैं । नयों के भेद
मूल में नयों के दो भेद हैं-द्रव्यनय और पर्यायनय-द्रव्यार्थिक तथा पर्यायाथिक । द्रव्यदृष्टि अभेदमूलक है और पर्यायदृष्टि भेदमूलक है। आचार्य सिद्धसेन के कथनानुसार भगवान् महावीर के प्रवचन में मूलतः दो ही दृष्टि हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक । जगत् का व्यवहार भी दो प्रकार का है-भेदगामी अथवा अभेदगामी । भेद का अर्थ है विशेष । अभेद का अर्थ है-सामान्य । जैनदर्शन में वस्तु सामान्य विशेषात्मक मानी है । व्यवहार और निश्चय
आगमों में निश्चय और व्यवहार से कथन करने की प्राचीन परम्परा है । कथन कहीं पर निश्चय से होता है, तो कहीं पर व्यवहार से । व्यवहार आरोप अथवा उपचार होता है। व्यवहार से कोयल कृष्ण वर्ण की है, लेकिन निश्चय से उस में पंचवर्ण हैं। घृत घट यह कथन भी व्यवहार का है, निश्चय में घट घृत का नहीं होता । जो वस्तु जैसी प्रतिभासित होती है, उमो रूप में वह सत्य है, या किसी अन्य रूप में ? वेदान्त में दो दृष्टि हैंप्रतिभास और परमार्थ । परमार्थ से ब्रह्म सत्य है, जगत् मिथ्या है। परन्तु प्रतिभास से जगत भी सत्य प्रतीत होता है। प्रतिभास व्यवहार है और जो परमार्थ है, वस्तुतः वही निश्चय कहा जाता है ।
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