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जैन दर्शन में प्रमाण व्यवस्था | ४५
एक धर्म के साथ अन्य धर्मों का अभेद करके वस्तु का वर्णन करना। एक गुण में अशेष वस्तु का संग्रह करना सकलादेश है। यह कथन आचार्य अकलंक का है । उन्होंने तत्वार्थ राजवार्तिक में कहा - "एक-गुण मुखेन शेष वस्तुरूप-संग्रहात् सकलादेशः ।" ।
विकलादेश में, एक धर्म की ही अपेक्षा रहती है और शेष की उपेक्षा । जिस धर्म का कथन अभीष्ट होता है, वही धर्म दृष्टि के सामने रहता है । अन्य धर्मों का निषेध नहीं होता, अपितु उस समय प्रयोजन न होने से उनका ग्रहण नहीं होता। यही उपेक्षाभाव है, लेकिन यह निषेध नहीं है । निषेध में संघर्ष है । वहाँ अनेकान्त नहीं, एकान्तवाद हो जाता है। सप्तभंगी को समझने में सकलादेश और विकलादेश का बड़ा महत्व है।
सकलादेश के आधार पर जो सप्तभंगी बनती है, उसे प्रमाण सप्तभंगी कहते हैं । विकलादेश के आधार पर जो सप्तभंगी बनती है, वह नय सप्तभंगी है । इसका अर्थ है कि नय का कथन विकलादेश और प्रमाण का कथन है, सकलादेश । सकल का अर्थ है, सम्पूर्ण । विकल का अर्थ है-- अंश-अंश कथन । कथन की ये दो पद्धतियाँ हैं। एक में शेष का अभेद करके कथन करना, और भेद करके अंश-अंश कथन करना । सप्तभंगों का कथन
___ आचार्य अकलंक ने तत्वार्थ राजवार्तिक में कहा है कि 'प्रश्नवशाद् एकस्मिन् वस्तुनि अविरोधेन विधि-प्रतिषेध-विकल्पना सप्तभंगी।' एक वस्तु में अविरोधपूर्वक विधि और प्रतिषेध को विकल्पना सप्तभंगी है। जब हम अस्तित्व का प्रतिपादन करते हैं, तब नास्तित्व भी निषेध रूप से हमारे सामने उपस्थित हो जाता है। जब हम सत् का प्रतिपादन करते हैं, तब असत् भी सामने आ जाता है। किसी भी वरतु के विधि और निषेध रूप दो पक्ष वाले धर्म का विना विरोध के प्रतिपादन करने से जो सात प्रकार के विकल्प उठते हैं, वही सप्तभंगी है । विधि और निषेधरूप धर्म का वस्तु में किसी प्रकार का विरोध नहीं है। दोनों पक्ष एक ही वस्तु में अविरोधभाव से रहते हैं। सप्तभंगों का स्वरूप
१. कथंचित् घट है, २. कथंचित घट नहीं है, ३. कथंचित् घट है और नहीं है, ४. कथंचित् घट अवक्तव्य है,
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