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प्रमाण व्यवस्था [ ५१
प्रमाण-मीमांसा सूत्र आचार्य हेमचन्द्र सूरि की यह एक अमर कृति है। इसका विषय है-प्रमाण-शास्त्र । प्रमाण के अभाव में प्रमेय की सिद्धि कैसे हो सकती है ? अतः स्वमत और परमत को समझने के लिए प्रमाण का परिज्ञान अनिवार्य है । यह प्रमाण ही प्रमाण-मीमांसा ग्रन्थ का मुख्य विषय है ।
यह भी एक सूत्रात्मक ग्रन्थ है । प्रमाण-मीमांसा के सूत्र लघु, प्रशस्त, सरल और सुन्दर हैं। सूत्रों की संख्या भी बहुत कम है। आचार्य ने स्वयं सूत्रों पर वृत्ति की रचना की है । वृत्ति मध्यम परिमाण वाली है। वृत्ति की भाषा प्रसादपरिपूर्ण है । अध्याय पाँच और आन्हिक दश में विभक्त है ग्रन्थ । परन्तु दुर्भाग्य से पूर्ण ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं है। काल कवलित हो चुका है । वृत्ति में प्रमाण से सम्बद्ध समस्त विषयों की परिचर्चा की है, आचार्य ने स्वयं । प्रमाण का लक्षण, प्रमाण के भेद, प्रमाण का विषय, प्रमाण का प्रामाण्य, प्रमाण का फल-इन समस्त विषयों पर आचार्य का पूर्ण अधिकार प्रतीत होता है । इन्द्रियों की और मन की बड़ी सुन्दर व्याख्या की है। केवलज्ञान, अवधिज्ञान और मतिज्ञान का स्वरूप बताया है। प्रमाता, प्रमाण, प्रमेय, प्रमा और उसके फल की भी बहुत सुन्दर व्याख्या प्रस्तुत की है।
__ न्यायरत्नसार सूत्र यह न्याय-शास्त्र का सूत्रात्मक ग्रन्थ है । इसके रचयिता स्थानकवासी समाज के प्रसिद्ध विद्वान् आचार्यप्रवर पूज्य घासीलालजी महाराज हैं । स्थानकवासी परम्परा का यह सूत्रात्मक प्रथम ग्रंथ है । सूत्रों की भाषा सरल है । सूत्रों में प्रसाद गुण की कमी नहीं है। ग्रन्थ छह अध्यायों में विभक्त है । ग्रन्थ का विषय प्रमाण, प्रमाण के भेद, प्रमाण का लक्षण, प्रमाण का फल और नय, सप्तभंगी, वाद, जल्प एवं वितण्डा आदि का स्वरूप भी बताया है। यह सूत्रात्मक कृति अति सुन्दर है।
आचार्य ने स्वयं सूत्रों पर न्यायरत्नावली संस्कृत टीका लिखी है और एक विस्तृत टीका भी लिखी है, जिसका नाम-स्याद्वाद मार्तण्ड है । ग्रंथ रचना से पूर्व आचार्य के समक्ष प्रमाण-नय-तत्त्वालोकालंकार सूत्र और उन व्याख्याओं का आदर्श अवश्य रहा है । मूल प्रेरणा और सामग्री का ग्रहण भी अधिकांश वहीं से किया है। व्याख्याओं का नाम भी ग्रन्थ के विषय के अनुकूल है ।
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