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५० | जैन न्याय-शास्त्र : एक परिशीलन
और समासांत भी। सूत्रों में माधुर्य एवं गाम्भीर्य तो है, लेकिन प्रसाद गुण कम है ! निश्चय ही सूत्र अत्यन्त वजनदार हैं । अध्येता और अध्यापक दोनों की कसौटी है । सूत्र संख्या भी काफी अधिक है । प्रमाण-संवद्ध संपूर्ण हैं । नयों पर पूरा परिच्छेद है। सप्तभंगो का विस्तृत वर्णन है, जो जैन न्याय का प्राण रहा है । निक्षेपों का भी वर्णन है। वाद, जल्प एवं वितण्डा जैसे विषयों को भी छोड़ा नहीं गया । न्याय-शास्त्र के इतिहास में आज तक अन्य वैसा ग्रन्थ नहीं लिखा गया । महान् ताकिक वादिदेव सूरि की यह अमर कृति है।
मूल सूत्रों पर रत्नाकर सूरि ने विस्तृत व्याख्या लिखी है। व्याख्या का नाम है- रत्नाकरावतारिका । न्याय-शास्त्र और साहित्यशास्त्र का सुन्दर एवं मधुर संगम है । पदावली अत्यन्त ललित है । अनुप्रास अलंकार का विशाल भण्डार है । वैदिक और वौद्ध दर्शनों का सचोट खण्डन किया गया है। केवली कवलाहार और स्त्री-मोक्ष का जोरदार मण्डन किया गया है । श्वेताम्बर मान्यताओं को तर्कबल से युक्तियुक्त सिद्ध किया गया है । अन्य दर्शनों का खण्डन है ।
स्वयं आचार्य वादिदेव सूरि ने स्व-रचित सूत्रों पर अतिविशाल तथा महाकाय भाष्य लिखा है, जिसका नाम है-स्याद्वाद रत्नाकर । वस्तुतः आज तक किसी भी अन्य न्याय ग्रन्थ पर इतना विशाल भाष्य नहीं लिखा गया । प्रमाणशास्त्र का, न्याय-शास्त्र का, वैसा कोई विषय नहीं छोड़ा गया, जिस पर आचार्य वादिदेव ने जमकर न लिखा हो । इस एक ही ग्रन्थ को पढ़कर समस्त भारतीय दर्शन और समस्त भारतीय न्याय पर अधिकार किया जा सकता है। न्याय शास्त्र का कोई वाद छूट नहीं सका है । आचार्य की प्रवाहमयी भाषा है, तों की गर्जना है और न्याय प्रमेयों की मूसलाधार वर्षा है । कोई वादी सामने टिक नहीं पाता।
जैन-न्याय का यह अक्षय भण्डार है । अन्य मत के प्रमाणों में दोष दिखाकर स्वमत सिद्ध प्रमाणों की, प्रमाण के विषयों की, प्रमाण के फलों की तथा प्रमाण के प्रमाणत्व की लम्बी चर्चा प्रस्तुत की है। स्याद्वाद और सप्तभंगी की चर्चा गहन-गम्भीर है । स्याद्वाद और सप्तभंगी, नयवाद और अनेकान्त दृष्टि, जैनदर्शन के प्रमाणभूत एवं प्राणभूत सिद्धान्त हैं । जैनदर्शन का आधार ही ये रहे हैं । बौद्ध का विज्ञानवाद एवं शून्यवाद, वेदान्त का अद्वैतवाद एवं मायावाद तथा सांख्य का प्रकृतिवाद और न्याय का ईश्वरवाद-ये सब स्याद्वाद रत्नाकर के रत्न हैं।
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