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१८ | जैन न्याय-शास्त्र : एक परिशीलन
है । उभय धर्ममुखेन युगपत् वस्तु के प्रतिपादन की असम्भवता के साथसाथ उभय धर्ममुखेन क्रमशः वस्तु का प्रतिपादन हो सकता है । यह प्रमाण वचन का सातवाँ रूप बन जाता है । जैन दर्शन में इसको प्रमाण सप्तभंगी नाम दिया गया है। प्रमाण सप्तभंगी प्रसिद्ध है। नय सप्तभंगी
___ वस्तु के सत्त्व और असत्त्व इन दो धर्मों में से सत्त्व धर्म का प्रतिपादन करना, नय वचन का पहला रूप है । असत्त्व धर्म का प्रतिपादन करना, नय वचन का दूसरा रूप है । उभय धर्मों का क्रमशः प्रतिपादन करना, नय वचन का तीसरा रूप है । उभय धर्मों का युगपत् प्रतिपादन करना, असम्भव है। अतः नयवचन का चतुर्थ रूप अवक्तव्य बनता है। नयवचन के के पाँचवें, छठे और सातवें रूपों को प्रमाण वचन के पाँचवे, छठे और सातवें, रूपों के समान समझ लेना चाहिए । जैन दर्शन में नय वचन के इन सात रूपों को नय सप्तभंगी कहा गया है। इस प्रकार अनेकान्तवाद, प्रमाणवाद, नथवाद, सप्तभंगीवाद और स्याद्वाद-जैन दर्शन के विशिष्ट सिद्धान्त हैं। धारावाहिक ज्ञान
न्याय, वैशेषिक और मीमांसक-धारावाहिक ज्ञानों को प्रमाण मानते हैं । अतः वे गृहीतग्राही होने पर भी प्रमाण ही हैं। बौद्ध दार्शनिक उसे अप्रमाण मानते रहे हैं । जैन परम्परा के श्वेताम्बर दार्शनिक धारावाहिक ज्ञानों को प्रायः प्रमाण ही मानते हैं, उन्हें अप्रमाण नहीं कहा है। लेकिन दिगम्बर आचार्य प्रायः उसे अप्रमाण ही मानते चले आए हैं । अतः दिगम्बरों का प्रमाण लक्षण भी श्वेताम्बराचार्यों से भिन्न प्रकार का ही रहा है। परन्तु समस्त जैनाचार्य स्मरण रूप परोक्ष प्रमाण को एवं स्मृति को प्रमाण ही मानते हैं, अप्रमाण नहीं मानते । न्याय और वैशेषिक स्मृति को प्रमाण मानते हैं । आचार्य हेमचन्द्र सूरि ने अपनी प्रमाण मीमांसा में धारावाहिक ज्ञान को प्रमाण सिद्ध किया है । इस प्रकार दार्शनिक एवं ताकिक विद्वानों में कुछ स्थलों पर गम्भीर विचार-भेद भी रहा है, और कहीं पर सहमति भी रही है। भारतीय दर्शन में प्रमाण की चर्चा ने काफी गम्भीर रूप ग्रहण किया है।
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