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जैन दर्शन में प्रमाण व्यवस्था ! ३६
परन्तु प्रमाण का लक्षण एवं स्वरूप का निर्धारण नहीं हो सका । इस कार्य को सम्पन्न किया - परीक्षामुख में माणिक्यनन्दी ने प्रमाणनयतत्वालोक में वादिदेव सूरि ने और प्रमाण- -मीमांसा में आचार्य हेमचन्द्र सूरि ने । माणिक्यनन्दी ने कहा- वही ज्ञान प्रमाण है, जो स्व का और अपूर्व अर्थ का निर्णय करता हो । अपूर्व विशेषण से आचार्य धारावाहिक ज्ञान को प्रमाण नहीं मानते । परन्तु यह ध्यान में रहे, कि श्वेताम्बर आचार्य धारावाहि ज्ञान को प्रमाण मानते हैं । वादिदेव सूरि ने कहा- स्व और पर का निश्चयात्मक ज्ञान प्रमाण है । यहाँ अपूर्व विशेषण हटा दिया गया । आचार्य हेमचन्द्र सूरि ने कहा -- अर्थ का सम्यग् निर्णय प्रमाण है । यहाँ स्व और पर हटा गिये गये हैं । सम्यक् अर्थ निर्णय को ही रखा है। ज्ञान और प्रमाण में अभेद है | ज्ञान का अर्थ है, सम्यग्ज्ञान न कि मिथ्याज्ञान । दीपक जब उत्पन्न होता है, तब पर आदि पदार्थ को प्रकाशित करने के साथ ही अपने आपको भी प्रकाशित करता है ।
प्रमाण के भेद
जैन दर्शन में प्रमाण के दो भेद हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष सीधा आत्मा से उत्पन्न होने वाला है. और परोक्ष इन्द्रिय तथा मन आदि करणों की सहायता से उत्पन्न होता है । बौद्धों ने भी प्रमाण के दो भेद किये हैं | आचार्य धर्मकीर्ति ने अपने ग्रन्थ न्याय-बिन्दु में कहा - प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण के ये दो भेद हैं । लेकिन जैन दर्शन के अनुसार अनुमान परोक्ष का ही एक भेद है । अतः बौद्ध दर्शन का प्रमाण-विभाजन अपूर्ण ही है । वैशेषिक और सांख्य के तीन प्रमाण हैं - प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम । नैयायिक के चार हैं-- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम एवं शब्द । प्रभाकर के पाँच हैं - प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, आगम और अर्थापत्ति | भाट्ट सम्प्रदाय के छह हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, आगम, अर्थापत्ति और अनुपलब्धि अर्थात् अभाव । चार्वाक केवल एक ही प्रमाण स्वीकार करता है - प्रत्यक्ष | जैन दर्शन-मान्य दोनों प्रमाणों में, ये सब प्रमाण समा जाते हैं, सवका अन्तर्भाव दो में ही हो जाता है । अतएव प्रमाण दो ही हैं-न कम और न अधिक ।
प्रत्यक्ष के भेद
प्रत्यक्ष अपने आप में पूर्ण है । उसे किसी अन्य आधार के सहयोग की आवश्यकता नहीं। प्रमाण-मीमांसा, प्रमाणनयतत्वालोकालंकार और परीक्षामुख में विशद तथा स्पष्ट ज्ञान का प्रत्यक्ष कहा गया है। उसके दो
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