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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन दर्शन में प्रमाण व्यवस्था ! ३६ परन्तु प्रमाण का लक्षण एवं स्वरूप का निर्धारण नहीं हो सका । इस कार्य को सम्पन्न किया - परीक्षामुख में माणिक्यनन्दी ने प्रमाणनयतत्वालोक में वादिदेव सूरि ने और प्रमाण-‍ -मीमांसा में आचार्य हेमचन्द्र सूरि ने । माणिक्यनन्दी ने कहा- वही ज्ञान प्रमाण है, जो स्व का और अपूर्व अर्थ का निर्णय करता हो । अपूर्व विशेषण से आचार्य धारावाहिक ज्ञान को प्रमाण नहीं मानते । परन्तु यह ध्यान में रहे, कि श्वेताम्बर आचार्य धारावाहि ज्ञान को प्रमाण मानते हैं । वादिदेव सूरि ने कहा- स्व और पर का निश्चयात्मक ज्ञान प्रमाण है । यहाँ अपूर्व विशेषण हटा दिया गया । आचार्य हेमचन्द्र सूरि ने कहा -- अर्थ का सम्यग् निर्णय प्रमाण है । यहाँ स्व और पर हटा गिये गये हैं । सम्यक् अर्थ निर्णय को ही रखा है। ज्ञान और प्रमाण में अभेद है | ज्ञान का अर्थ है, सम्यग्ज्ञान न कि मिथ्याज्ञान । दीपक जब उत्पन्न होता है, तब पर आदि पदार्थ को प्रकाशित करने के साथ ही अपने आपको भी प्रकाशित करता है । प्रमाण के भेद जैन दर्शन में प्रमाण के दो भेद हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष सीधा आत्मा से उत्पन्न होने वाला है. और परोक्ष इन्द्रिय तथा मन आदि करणों की सहायता से उत्पन्न होता है । बौद्धों ने भी प्रमाण के दो भेद किये हैं | आचार्य धर्मकीर्ति ने अपने ग्रन्थ न्याय-बिन्दु में कहा - प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण के ये दो भेद हैं । लेकिन जैन दर्शन के अनुसार अनुमान परोक्ष का ही एक भेद है । अतः बौद्ध दर्शन का प्रमाण-विभाजन अपूर्ण ही है । वैशेषिक और सांख्य के तीन प्रमाण हैं - प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम । नैयायिक के चार हैं-- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम एवं शब्द । प्रभाकर के पाँच हैं - प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, आगम और अर्थापत्ति | भाट्ट सम्प्रदाय के छह हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, आगम, अर्थापत्ति और अनुपलब्धि अर्थात् अभाव । चार्वाक केवल एक ही प्रमाण स्वीकार करता है - प्रत्यक्ष | जैन दर्शन-मान्य दोनों प्रमाणों में, ये सब प्रमाण समा जाते हैं, सवका अन्तर्भाव दो में ही हो जाता है । अतएव प्रमाण दो ही हैं-न कम और न अधिक । प्रत्यक्ष के भेद प्रत्यक्ष अपने आप में पूर्ण है । उसे किसी अन्य आधार के सहयोग की आवश्यकता नहीं। प्रमाण-मीमांसा, प्रमाणनयतत्वालोकालंकार और परीक्षामुख में विशद तथा स्पष्ट ज्ञान का प्रत्यक्ष कहा गया है। उसके दो For Private and Personal Use Only
SR No.020394
Book TitleJain Nyayashastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni
PublisherJain Divakar Prakashan
Publication Year1990
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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