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४० | जैन न्याय-शास्त्र : एक परिशीलन
भेद हैं ... सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और पारमार्थिक प्रत्यक्ष । पारमार्थिक के दो भेद हैं--सकल और विकल । सकल प्रत्यक्ष केवलज्ञान है, और विकल प्रत्यक्ष-अवधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञान हैं। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के चार भेद हैं-अवग्रह. ईहा, अवाय और धारणा । मतिज्ञान के समस्त भेदप्रभेद इसके अन्तर्गत आ जाते हैं। इन्द्रियजन्य और मनोजन्य ज्ञान भी सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के ही भेद माने जाते हैं। जैन दर्शन में ये सब प्रत्यक्ष प्रमाण के भेद हैं। परोक्ष के भेद
जो ज्ञान अविशद और अस्पष्ट है, वह परोक्ष है । परोक्ष, प्रत्यक्ष से ठीक विपरीत है, जिसमें विशदता एवं स्पष्टता का अभाव है, वह परोक्ष प्रमाण है । उसके पाँच भेद हैं --स्मति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम । अतीत का ज्ञान, स्मृति है, अतीत और वर्तमान का ज्ञान, प्रत्यभिज्ञान है, व्याप्ति ज्ञान में सहयोगी ज्ञान, तर्क है, हेतु से माध्य का ज्ञान, अनुमान है । आप्त वचन से होने वाला ज्ञान है, आगम । संक्षेप में, ये सब परोक्ष प्रमाण के भेद हैं। प्रमाण का प्रमाणत्व
न्याय में इस विषय पर काफी तर्क-वितर्क होता रहा । प्रामाण्य का निश्चय स्वतः होता है, कि परतः ? मीमांसक स्वतः प्रामाण्यवादी है । नैयायिक परतः प्रामाण्यवादी है । सांख्य का कहना है, कि प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों ही स्वतः होते हैं। जैन दर्शन इन तीनों से भिन्न सिद्धान्त की स्थापना करता है । प्रामाण्य निश्चय के लिए स्वतःप्रामाण्य और परतः प्रामाण्य दोनों की आवश्यकता है। अभ्यास दशा में स्वतः और अनभ्यास दशा में परतः । यह विषय का संक्षेप है। प्रमाण का फल
अर्थ का ठीक-ठीक स्वरूप समझने के लिए प्रमाण का ज्ञान आवश्यक है। प्रमाण का साक्षात्फल अज्ञान का नाश है। केवलज्ञान के लिए उसका फल मुख और उपेक्षा है, शेष ज्ञानों के लिए ग्रहण और त्याग बुद्धि है। यह कथन आचार्य सिद्धसेन दिवाकर का है । सामान्य दृष्टि से प्रमाण का फल यही है, कि अज्ञान नहीं रहने पाता । जैसे सूर्योदय होने पर अन्धकार नहीं रहता।
जैनदर्शन में नयवाद जैन-परम्परा में पाँच ज्ञान की मान्यता अत्यन्त प्राचीन काल से
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