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जैन दर्शन में प्रमाण व्यवस्था
आगमों में व्यवस्था, अनेक रूपों में प्राप्त होती है, जिसका उल्लेख स्थानांगसूत्र, अनुयोगद्वारसूत्र और नन्दीसूत्र में है। यह व्यवस्था पाँच ज्ञानों को आधार मानकर की है। राजप्रश्नीय में कूमारकेशी राजा प्रदेशी को यह कहते हैं, कि हम श्रमण पाँच ज्ञान मानते हैं---मति, श्र त, अवधि, मनःपर्याय और केवल । स्थानांग में पाँच ज्ञानों को दो प्रमाणों में विभक्त किया है-प्रत्यक्ष और परोक्ष । परोक्ष में मति और श्र त का समावेश किया है, और प्रत्यक्ष में अवधि, मनःपर्याय और केवल का। अनुयोगद्वार में इसी प्रकार का कथन है, लेकिन विभाजन की शैली कुछ भिन्न है। नन्दीसूत्र में विभाजन की शैली अधिक स्पष्ट हो चुकी है । वह दर्शनयुग के अधिक निकट है। वाचक उमास्वाति-कृत तत्त्वार्थाधिगमसूत्र में अथवा तत्त्वार्थसूत्र में पाँच ज्ञानों का विभाजन दार्शनिक शैली में किया गया है, जो तर्क युग के समीप पहुँच चुका है। अथवा कहना चाहिए, प्रमाण युग की पूर्व भूमिका है। तर्क युग में ज्ञान और प्रमाण
वाचक उमास्वाति ने ज्ञान और प्रमाण में किसी प्रकार का भेद नहीं देखा । पहले पाँच ज्ञानों का नाम बताकर, कह दिया, कि पाँचों ज्ञान प्रमाण हैं। प्रमाण के दो भेद हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष । यहाँ प्रमाण का स्वतन्त्र लक्षण नहीं दिया गया। प्रमाण के प्रमाणत्व एवं अप्रमाणत्व की भी चर्चा नहीं की । सीधा ज्ञान और प्रमाण में अभेद सिद्ध कर दिया गया। यह ज्ञान और प्रमाण का सन्धि काल है । ज्ञान, प्रमाण में प्रवेश कर चुका है । तर्क युग का प्रारम्भ हो गया है । जैन दर्शन में प्रमाण का लक्षण
आगम से लेकर तत्वार्थ सूत्र तक प्रमाण के भेद-प्रभेद हो चुके थे।
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