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भारतीय दर्शनों का संक्षिप्त परिचय | २६
को मान्यता है, कि ज्ञान स्वयं अपना प्रत्यक्ष नहीं करता, परन्तु दूसरे ज्ञान के द्वारा उसका प्रत्यक्ष होता है । ये दोनों दर्शन गृहीतग्राही धारावाहि ज्ञान को भी प्रमाण मानते हैं। ज्ञान का प्रत्यक्ष अनुव्यवसाय ज्ञान से मानते हैं ।
इस प्रकार न्याय और वैशेषिक दोनों समान तन्त्र माने जाते हैं । दोनों के सिद्धान्त परस्पर मिलते-जुलते हैं । अतएव इन दोनों को 'योग' भी कहा जाता है ।
सांख्य और योगदर्शन
सांख्य दर्शन और योग दर्शन दोनों ही सहयोगी दर्शन हैं । सांख्य दर्शन प्रमेय बहुल दर्शन है । मुख्यतया इसमें तत्व - मीमांसा की है । प्रमाण का विचार अत्यन्त अल्प किया है । सांख्य में तीन प्रमाण हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम | योग भी ज्ञान प्रधान न होकर आचार प्रधान रहा है । योग की साधना करके समाधि पाना ही इसका एकमात्र लक्ष्य रहा है । अतः इसमें तत्वों पर भी विचार नहीं किया गया ।
सांख्य सिद्धान्त
परम्परा से महर्षि कपिल सांख्य दर्शन के प्रथम उपदेष्टा माने जाते हैं | यह भारत का प्राचीनतम दर्शन है । क्योंकि इसके सिद्धान्त वेद, उपनिषद्, रामायण, महाभारत, योगवाशिष्ठ तथा श्रुति स्मृतियों में सर्वत्र बिखरे पड़े हैं । परन्तु इस सम्प्रदाय का एक प्रामाणिक और मूलभूत ग्रन्थ ईश्वरकृष्णकृत सांख्यकारिका है । यही ग्रन्थ सांख्य दर्शन का वर्तमान ज्ञान का आधार स्तम्भ माना जाता है ।
इस जगत के मूल में दो तत्व हैं - एक प्रकृति और दूसरा पुरुष । प्रकृति अचेतन है, और पुरुष चेतन । सांख्य में पच्चीस तत्त्व माने जाते हैं । प्रकृति से बुद्धि, बुद्धि से अहंकार, अहंकार से सत्त्व, रज और तम रूप गुण फिर पाँच ज्ञान इन्द्रिय, पाँच कर्म इन्द्रिय और मन । फिर पाँच तन्मात्रा और पाँच महाभूत । इस प्रकार यह सारा विकार एक प्रकृति का ही है । प्रकृति का स्वरूप
प्रकृति अचेतन है, यह जड़ है । यह सक्रिय है, भोग्या है, सावयव है, परिणामी है और समस्त संसार की जनक है । पुरुष संसर्ग से इसमें ही कर्तत्व और भोक्तृत्व पाया जाता है। प्रकृति में प्रतिक्षण परिणमन होता
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