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३० | जैन न्याय-शास्त्र : एक परिशीलन
है । पुरुष में परिणमन नहीं होता। अतः उसे अपरिणामी कहा गया है। तमोगुण, रजोगुण और सत्त्वगुण प्रकृति के धर्म हैं। पुरुष का स्वरूप
पुरुष चैतन्य स्वरूप है। वह साक्षी है, निर्गुण है, उदासीन है, अकर्ता है, अभोक्ता है, नित्य है, स्वयंभू है, निष्क्रिय है। इसमें कर्तृत्व और भोक्तृत्व धर्म बुद्धि के कारण आरोपित होते हैं । संख्या में पुरुष अनन्त हैं । तीन प्रकार के दुःख
संसारी पुरुष तीन प्रकार के दुःखों से पीड़ित हैं। वे दुःख इस प्रकार हैं
१. अध्यात्म दुःख-यह दो प्रकार है । वात, पित्त एवं कफ आदि से जन्य, शरीर कृत दुःख । काम, क्रोध एवं लोभ आदि से जन्य, मानस दुःख ।
२. आधिभौतिक दुःख-भौतिक पदार्थों से जन्य दुःख । जैसे सर्प का काटना, धन नष्ट होना।
____३. आधिदैविक दुःख-जैसे भूकम्प का आना, भूत-प्रेत की बाधा, अतिवृष्टि आदि । भेद-विज्ञान
इन दुःखों से निवृत्ति तभी सम्भव है, जब पुरुष और प्रकृति का भेदज्ञान हो। पुरुष अज्ञान के कारण प्रकृतिजन्य बुद्धि तथा शरीर आदि के सुख एवं दुःख आदि धर्मों को अपना समझता है । भेदज्ञान से विवेक और विवेक से कैवल्य की प्राप्ति होती है। यही जीवन्मुक्ति है। फिर प्रारब्ध कर्मों के क्षीण होते ही वह देह को छोड़कर, विदेह मुक्त हो जाता है। योग दर्शन
योग दर्शन सांख्य का पूरक दर्शन है। महर्षि पतञ्जलि ने इसकी स्थापना की थी। योग का सम्बन्ध साधना से है, ज्ञान से नहीं। फिर भी योग दर्शन सांख्य का अनुकरण करके तीन प्रमाण मानता है-प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम । तत्त्व व्यवस्था भी सांख्य की स्वीकार कर लेता है। योग का साहित्य बहुत अल्प है। पतञ्जलि कृत योग-सूत्र । व्यास भाष्य, भोजवृत्ति, तत्त्व वैशारदी और विज्ञानभिक्षकृत योग-वार्तिक तथा योगसार आदि ग्रन्थ हैं।
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