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३४ । जैन न्याय-शास्त्र : एक परिशीलन
व्यक्त होता है । एक अवस्था से दूसरी अवस्था में आने को परिणाम अथवा विकार कहा गया है।
___ न्याय-वैशेषिक असत्कार्यवाद को मानता है, इसको आरम्भवाद भी कहा गया है । पट तो तन्तुओं से सर्वथा भिन्न एक नयी वस्तु है । वेदान्त का विवर्तवाद प्रसिद्ध है। विकार का अर्थ यह है, कि कारण वस्तुतः कार्य रूप में बदल जाता है । तन्तु पट के रूप में बदल जाता है। दूध दही के रूप में परिवर्तित हो जाता है। विवर्तवाद का अर्थ है, कि कारण वस्तुतः अपने ही स्वरूप में रहे, केवल बदल जाने का भ्रम बना रहे । जैसे रज्जु में सर्प की प्रतीति होती है। वस्तुतः सर्प है ही नहीं। इसी प्रकार ब्रह्म जगत् के रूप में नहीं बदलता, बदलने का भ्रम हो जाता है । वेदान्त के इसी सिद्धान्त को मायावाद कहा गया है । रामानुज का विशिष्टाद्वैतवाद
रामानुज के अनुसार, चेतन जीव और जड़ जगत्, ब्रह्म से ही उत्पन्न होते हैं । ब्रह्म उनका निमित्त और उपादान दोनों ही कारण है। ब्रह्म के बिना उनका अस्तित्व नहीं । अतः एकमात्र अद्वैत तत्त्व ब्रह्म को कहा जा सकता है । परन्तु चेतन जीव और जड़ जगत् ब्रह्म से उत्पन्न होने पर भी असत् नहीं हैं । उपनिषदों में कहीं पर अद्वैत और कहीं पर ढ त का प्रतिपादन किया गया है। विशिष्टाद्वैत दोनों पक्षों का सुन्दर समन्वय कर देता है। एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि शंकर के अद्वैतवाद में, ज्ञान पर विशेष बल दिया गया है, परन्तु रामानुज के विशिष्टाद्वैत में, वैष्णव वेदान्त सम्प्रदायों में, ज्ञान को गौण करके भक्ति पर विशेष बल दिया है । रामानुज सम्प्रदाय के मुख्य ग्रन्थ हैं- श्रीभाप्य, वेदान्तसार संग्रह, वेदार्थ-संग्रह एवं वेदान्त-दीप । निमार्क का हैताद्वैतवाद
निम्बार्क के अनुसार तीन तत्त्व हैं-चित् अर्थात्-जीव, अचित् अर्थात् जड़ जगत् और ईश्वर । ये तीनों क्रमशः भोक्ता, भोग्य और नियन्ता हैं । जीव ज्ञान स्वरूप है, अतः वह प्रज्ञानघन कहा गया है। जीव के ज्ञान स्वरूप होने का अर्थ यह है, कि जीव ज्ञान भी है, और ज्ञानवाला भी। जैसे सूर्य प्रकाश भी है, और प्रकाश वाला भी । जीव, जड़ और ईश्वर में तादात्म्य या अभेद सम्बन्ध है । इस प्रकार भेद और अभेद अर्थात् द्वैत और अद्वैत दोनों ही ठीक हैं । इनकी सम्प्रदाय का प्रसिद्ध ग्रन्थ-वेदान्त
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