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३२ | जैन न्याय-शास्त्र : एक परिशीलन
लेकिन भाट अन्धकार एवं शब्द को भी द्रव्य मानते हैं। द्रव्य एवं तत्वों की संख्या के विषय में दोनों में मतभेद रहे हैं। प्रमाण संख्या
प्राभाकर सम्प्रदाय में पाँच प्रमाण माने जाते हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, आगम और अर्थापत्ति । भाट सम्प्रदाय के अनयायी छह प्रमाण मानते हैं—प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, आगम, अर्थापत्ति और अभाव । मीमांसा-दर्शन में ज्ञान का प्रत्यक्ष नहीं होता। ज्ञान न तो स्वयं वेद्य है, और न ज्ञानान्तर से वेद्य है । अतः ज्ञान परोक्ष है। ज्ञान में प्रमाणता और अप्रमाणता कैसे होतो है ? इस विषय में विभिन्न दर्शनों में परस्पर बहत विवाद रहा है।
न्याय वैशेषिक दोनों को परतः, सांख्य-योग दोनों को स्वतः और मीमांसक लोग प्रामाण्य को स्वतः तथा अप्रामाण्य को परतः मानते हैं। सर्वज्ञ का निषेध
भारतीय दर्शनों में मीमांसा दर्शन सर्वज्ञ पुरुष और सर्वज्ञता का एकान्त निषेध करता है। उसका कथन है कि कोई सर्वज्ञ पुरुष अथवा अतीन्द्रियदर्शी नहीं हो सकता। क्योंकि किसी भी पुरुष में ज्ञान और वीतरागता का पूर्ण विकास सम्भव नहीं है ।
न्याय-वैशेषिक सर्वज्ञ पुरुष और उसकी सर्वज्ञता तथा वीतरागता को स्वीकार करते हैं। सांख्य-योग भी स्वीकार करते हैं। बौद्ध भी तथागत को सर्वज्ञ मानते हैं । ये दर्शन तो वीतरागता, सर्वज्ञता और सर्वशित्व को स्वीकार करते हैं। वह अपने पैने तर्कों से सर्वज्ञ सिद्धि करते हैं । उनका कथन है कि प्रबल एवं निर्दोष अनुमान प्रमाण से सर्वज्ञ की सिद्धि होती है। कोई पुरुष सकल पदार्थों का ज्ञाता है, क्योंकि उसका स्वभाव उनको जानने का है, तथा उसमें प्रतिबन्ध के कारण नष्ट हो गये हैं । अतः वह सर्वज्ञ है। अपौरुषेयवाद
मीमांसा दर्शन वेद को अपौरुषेय मानता है । क्योंकि वेद मुख्य रूप से अतीन्द्रिय धर्म का प्रतिपादक है। अतः धर्म में वेद ही प्रमाण है। इस प्रकार वेद को स्वतः प्रमाण माना गया है। वेद को अपौरुषेय मानने के कारण मीमांसक शब्द को नित्य मानते हैं। मीमांसा दर्शन ने कर्म मीमांसा पर अत्यधिक बल दिया है । यज्ञ एवं याग को यह परम धर्म मानता है ।
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