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भारतीय दर्शनों का संक्षिप्त परिचय | २५ धर्मकीर्ति ने कहा, कि जो ज्ञान का भी प्रत्यक्ष, या संवेदन स्वीकार नहीं करता, उसके लिए वस्तुओं का ज्ञान भी सम्भव नहीं। अतः ज्ञान का प्रत्यक्ष और ज्ञान की सत्ता को स्वीकार करना पड़ेगा। यह योगाचार के दर्शन का आधारभूत तर्क है। बाह्य जगत का खण्डन
ज्ञान के संवेदन को एवं ज्ञान के अस्तित्व को आधारभूत मान कर योगाचार बाह्य वस्तुओं का खण्डन करता है। जब हम प्रत्यक्ष से नील को देखते हैं, तब नील और उसका प्रत्यक्ष-ये दो वस्तु अलग-अलग प्रतीत नहीं होती। अतः नील और उसका ज्ञान दोनों एक ही वस्तु हैं, भिन्न-भिन्न नहीं । अतः नील का ज्ञान ही यथार्थ वस्तु है, न कि नील वस्तु । इसलिए विज्ञान ही सत्य है, वस्तु की सत्ता ही नहीं है । विज्ञानवादी ने बाह्य पदार्थों के खण्डन में अनेक तर्क दिये हैं, जिनमें परमाणुवाद और द्रव्यवाद का खण्डन करके यह सिद्ध किया है, कि बाह्य वस्तुओं का अस्तित्व सम्भव ही नहीं होता है । विज्ञान के भेद
विज्ञानवाद के अनुसार सत्य के तीन प्रकार हैं-एक परिनिष्पन्न लक्षण अर्थात् परमार्थ सत्य, दूसरा परतन्त्र लक्षण अर्थात् व्यावहारिक सत्य और तीसरा परिकल्पित लक्षण अर्थात् कल्पनात्मक सत्य। सत्य के तीन स्तर हैं।
परमार्थ सत्य क्या है ? प्रत्येक क्षण अनुभव में आने वाले अनन्त विज्ञानों को प्रवृत्ति विज्ञान कहा गया है। इन प्रवृत्ति विज्ञान से परे एक आलयविज्ञान है, जो निरपेक्ष तत्त्व है, जिसमें एक प्रकार से समस्त प्रवृत्ति विज्ञान समा जाते हैं। जिस प्रकार माध्यमिक शून्यवाद में निरपेक्ष का स्वरूप शून्य है, उसी प्रकार योगाचार का निरपेक्ष तत्त्व आलय-विज्ञान के रूप में है । आलय विज्ञान ही निर्वाण एवं बोधि का स्वरूप है । यह आलय विज्ञान ही परिनिष्पन्न लक्षण सत्य है, अर्थात् परमार्थ सत्य है । इस आलयविज्ञान का शुद्ध स्वरूप योग के द्वारा प्राप्त होता है, जिसके कारण ही इस सम्प्रदाय का नाम योगाचार कहा गया है। घट-पट आदि का ज्ञान, प्रवृत्ति विज्ञान और आत्मसंवेदन "मैं हूँ" यह आ लयविज्ञान कहा गया है ।
गोशालक का नियतिवाद भारतीय दर्शनों में, नियतिवाद भी एक प्राचीन सिद्धान्त माना गया
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