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भारतीय दर्शनों का संक्षिप्त परिचय | २३
पदार्थ की चार कोटि
संसार के किसी भी पदार्थ पर जब विचार किया जाता है, तब उसकी चार कोटि हो सकती हैं। वह सत् हो, वह असत् हो, वह उभयसत् एवं असत् हो, वह अनुभय-न सत् हो, न असत् हो । प्रत्येक पदार्थ के विषय में ये चार कोटि बनती हैं । परन्तु शून्यवाद इनमें से किसी में भी नहीं आता । वह तो चतुष्कोटि विमुक्त है । बौद्ध दर्शन का यही तो शून्यवाद कहा जाता है । पदार्थों का स्वभाव शून्य रूप है, वह अनिर्वचनीय है, उसका शब्दों द्वारा निर्वचन नहीं किया जा सकता । बौद्ध दर्शन - द्रव्य अवयवी तथा पुद्गल अर्थात् आत्मा का निषेध करके प्रत्येक क्षण आविर्भूत होने वाले धर्मों की अनन्तता मानता है । इसके अनुसार यद्यपि आत्मा द्रव्य और अवयवी असत् है, तथापि क्षणिक धर्म सत् हैं, यथार्थ । लेकिन शून्यवाद एक कदम आगे जाता है । वह कहता है, धर्म भी वस्तुतः असत् ही हैं । वस्तुओं पर जैसे-जैसे विचार करते हैं, वैसे-वैसे उनका तत्व बिखरता जाता है । तत्व की व्याख्या नहीं की जा सकती । वस्तु निःस्वभाव
हीनयान के दर्शन ने अनात्मवाद और अद्रव्यवाद की स्थापना की । महायान के दर्शन ने अर्थात् शून्यवाद ने धर्म नैरात्म्य या धर्मशून्यता की स्थापना की । पुरातन बौद्ध दर्शन ने कहा, कि कारण से कार्य का बनना सम्भव नहीं, प्रतीत्य-समुत्पाद की स्थापना की थी, जिसके अनुसार कारणों के होने पर कार्य होता है, परन्तु कारणों से उत्पन्न नहीं होता । शून्यवाद के रूप में, नूतन दार्शनिक क्रान्ति ने प्रतीत्य-समुत्पाद को एक कदम आगे बढ़ाया । कारण के होने पर कार्य होता है । इसका अर्थ यह है, कि प्रत्येक वस्तु दूसरी वस्तु पर सापेक्ष है, अर्थात् उसका स्वभाव, स्वरूप या सत्त्व, दूसरों पर अपेक्षित है । उस वस्तु का अपना स्वभाव कुछ भी नहीं । इस प्रकार प्रत्येक वस्तु दूसरी पर सापेक्ष होने के कारण निःस्वभाव, स्वरूप - शून्य अथवा शून्य है । यही है, नागार्जुन का शून्यवाद, जिसने दार्शनिक जगत् में एक दिन तूफान खड़ा कर दिया था |
शून्यवाद और ब्रह्मवाद
शून्यवाद का सिद्धान्त केवल निषेधात्मक नहीं है । समस्त दृश्य जगत् को परस्पर सापेक्ष और निःस्वभाव शून्य बताने वाला शून्यवाद एक निरपेक्ष तत्व की ओर निर्देश करता है । महायान शून्यवाद के अनुसार
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