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२० | जैन न्याय - शास्त्र : एक परिशीलन
पदा टीका है । नागार्जुन के शिष्य आर्यदेव का चतुःशतक ग्रन्थ भी महत्व - पूर्ण है ।
योगाचार सम्प्रदाय
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कालक्रम के अनुसार माध्यमिक शून्यवाद के बाद बौद्ध दर्शन में, योगाचार के विज्ञानवाद का स्थान है । विज्ञानवाद का प्रवर्तक असंग माना जाता है, जिसका लघुभ्राता वसुबन्धु था । कुछ विद्वान् मैत्रेयनाथ को विज्ञानवादका प्रवर्तक कहते हैं । महायान संपरिग्रह, मैत्रेयनाथ का ग्रन्थ माना जाता है । विज्ञप्ति मात्रता प्रसिद्धि, विंशतिका, त्रिशतिका आदि ग्रन्थ विज्ञानवाद के मुख्य ग्रन्थ हैं, जिनमें विज्ञानवाद के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है । माध्यमिक ने बाह्य और आन्तर, दोनों प्रकार के धर्मों का निषेध किया था । परन्तु योगाचार ने कहा कि स्वसंवेदन होता है, इसका निषेध नहीं किया जा सकता । स्वसंवेदन सत्य है । यह इस दर्शन का आधारभूत तर्क है । योगाचार आत्मा को नहीं, ज्ञान को मानता है | अतः यह विज्ञानवाद कहा जाता है ।
दिङ्नाग का न्यायशास्त्र
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बौद्ध परम्परा के महान आचार्य दिङ्नाग बौद्ध न्याय - शास्त्र के जनक एवं पिता हैं । बौद्ध परम्परा के अनुसार दिङ्नाग वसुबन्धु के शिष्य कहे जाते हैं । समग्र भारतीय दर्शन पर, विशेषतः न्याय-वैशेषिक तथा पूर्वमीमांसा के बाह्यार्थवाद पर इनका अत्यन्त प्रभाव पड़ा है । जिस प्रकार वेदान्त के अद्वैतवाद को नागार्जुन ने स्फूर्ति तथा प्रेरणा प्रदान की, उसी प्रकार भारती बाह्यार्थवाद को दिङ्नाग से पर्याप्त प्रेरणा मिली । दिङ्नाग ने विशेषकर न्याय के वात्स्यायन भाष्य पर पूरे बल से आक्रमण किया था । उसका उत्तर उद्योतकर ने अपने न्यायवार्तिक में दिया । बौद्ध-न्याय के संघर्ष ने भारत के कतिपय सबसे महान् दार्शनिक जैसे उद्योतकर, धर्मकीर्ति, कुमारिल, प्रभाकर, धर्मोत्तर, वाचस्पति मिश्र, जयन्त, श्रीधर और आचार्य उदयन आदि को जन्म दिया ।
दिङ्नाग सम्प्रदाय
दिङ्नाग का मुख्य ग्रन्थ, जिसने भारतीय दर्शन में क्रान्ति उत्पन्न कर दी, 'प्रमाण समुच्चय' है । इसके अतिरिक्त भी इनके अनेक ग्रन्थ हैं, जैसे कि न्याय प्रवेश एवं आलम्बन परीक्षा आदि । दिङ्नाग का उत्तरा
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