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श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ
गंगापुर से चित्तौड़ होते हुए आप जावरा पधारे । मार्ग में गुरुदेव श्री हीरालालजी महाराज का सानिध्य भी प्राप्त हो गया। जावरे में नाथद्वारा श्रीसंघ चातुर्मास की प्रार्थना लेकर आया । जावरा श्रीसंघ को एवं रतलाम के सेठ अमरचन्द जी पीतलिया को इस प्रार्थना पर आश्चर्य हुआ । उन्होंने पूछा
" आपके यहाँ जैन श्रावकों के कितने घर हैं ?" " बहुत थोड़े हैं ।"
" तो चातुर्मास की धर्म प्रभावना कैसे बनेगी ?" "अजैन लोग हमसे
विश्वास है ।"
एक पारस पुरुष का गरिमामय जीवन : २४ :
सेठ अमरचन्द जी ने शासन को प्रभावना होगी।' कर दी ।
अधिक उत्सुक हैं, इसलिए धर्म प्रभावना अधिक होगी, हमें पूरा
सोचा- 'विष्णुपुरी नाथद्वारा में महाराज साहब के निमित्त से जिनइसलिए उन्होंने नाथद्वारा चातुमासार्थ अपनी सहर्ष सहमति प्रगट
मुनिश्री हीरालाल जी महाराज की आज्ञा से आपश्री का यह चातुर्मास नाथद्वारा में हुआ । आपके प्रवचनों से प्रभावित होकर अजैनों ने भी जैन विधि से व्रत उपवास आदि किए। आपकी प्रशंसा गाई जाने लगी । नाथद्वारा में जिनशासन और जैन सिद्धान्तों का खूब प्रचार-प्रसार हुआ । नवाँ चातुर्मास (सं० १९६१ ) : खाचरोद
नाथद्वारा से विहार कर मुनिश्री चौथमलजी महाराज सन्त समुदाय सहित हारोल, देलवाड़ा, डबूक आदि स्थानों को पवित्र करते हुए उठाले (मेवाड़) पधारे । वहाँ नाथद्वारा के श्रावकों ने आकर आपसे पुनः नाथद्वारा पधारने की प्रार्थना की । यद्यपि वे नाथद्वारा में चातुर्मास बिताकर आये थे किन्तु श्रावकों और तपस्वी हजारीमलजी महाराज की इच्छा न टाल सके । तपस्वीजी महाराज ने श्रावकों द्वारा मिलने की इच्छा प्रकट करायी थी । आपश्री नाथद्वारा पहुँचे । तपस्वी हजारीमलजी महाराज के दर्शन किये, अन्य सन्तों की भी वन्दना की। उन्होंने भी बहुत प्रेम व्यक्त किया । हजारीमलजी महाराज ने बीकानेर चलने का आग्रह किया । इस पर आपश्री ने उत्तर दिया कि 'गुरुदेव की आज्ञा आवश्यक है ।' इस पर तपस्वीजी ने कहा - 'हम ब्यावर में तुम्हारी प्रतीक्षा करेंगे।' वहां से विहार कर आपश्री उदयपुर पधारे । प्रवचन- गंगा बहने लगी । उदयपुर स्टेट के सुप्रसिद्ध जागीरदार और भूतपूर्व प्रमुख दीवान कोठारी बलवन्तसिंहजी भी प्रवचनों को बड़े चाव से सुनते । वहाँ से विहार कर आपश्री बड़ेगांव पधारे । आपके उपदेश से प्रेरित होकर वहाँ के किसानों ने हिंसा का त्याग कर दिया । वहाँ से भिण्डर आदि स्थानों पर होते हुए कानोड पधारे ।
कानोड में एक दिन आपश्री अपने ठहरने के स्थान पर बैठे थे । एक युवक पर उनकी दृष्टि पड़ी। उन्होंने अनुमान किया कि यह युवक (किशोर) निराश्रित है । पास बुलाकर उसका परिचय पूछा तो उसने बताया- 'मैं राजपूत हूँ। मेरा नाम शंकरलाल है । पहले धरियावद में रहता था। माता-पिता न होने से यहाँ आ गया हूँ ।'
महाराजश्री ने कहा- "अन्न-वस्त्र आदि के लिए इस मूल्यवान जीवन को खोने से क्या लाभ ? साधु बनकर अपने मनुष्य जीवन को सफल कर ।"
शंकरलाल ने प्रसन्न होकर सहमति दी । वहाँ के श्रावकों ने भी अनुमति दी । शंकरलाल ने अपनी जातिवालों से भी अनुमति ले ली और वह प्रव्रजित हो गया ।
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