________________
22 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
में गंगदत्त का सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। इस प्रकार इस कृति के मूल परिकर्मविधिद्वार के पन्द्रह उपद्वारों का विवेचन समाप्त होता है। द्वितीय परगणसंक्रमण द्वार के दस प्रतिद्वारों का निरूपण इस प्रकार है - (१) प्रथम दिशा-द्वार में दिशा का अर्थ गच्छ बताया गया है, फिर स्वगच्छ की अनुज्ञापूर्वक अन्य गच्छ में प्रवेश करने की विधि का निर्देश है तथा नवीन गच्छाधिपति की योग्यता का स्वरूप, स्व-परगच्छ में योग्य निर्यापक पुरुषरत्न की खोज, संघ की सम्मति एवं साक्षीपूर्वक योग्य शिष्य को सूरिपद (आचार्यपद) प्रदान करने आदि का निर्देश किया गया है। साथ ही इसमें गच्छ की अनुज्ञा की विधि, उसमें जिनशासन की स्व-परहित व्यवस्था,संघरक्षा हेतु आचार्य की जिम्मेदारी एवं विधि-भंग के अनिष्ट परिणामों को समझाते हुए इसमें शिवभद्राचार्य का दृष्टान्त प्रतिपादित किया गया है। (२) दूसरे क्षामणा-द्वार में यह बताया गया है कि गणसंक्रमण करने वाले आचार्य प्रथम श्रमणसंघ से क्षमायाचना करें, पश्चात् श्रमणसंघ भी कृतज्ञभाव से आचार्यश्री से क्षमायाचना करे। इसमें क्षमापना पर अति वैराग्यजनक उद्बोधन प्रस्तुत है तथा सम्यक् क्षमापना नहीं करने पर होने वाले अनिष्टों के विषय पर नयशीलसूरि का दृष्टान्त भी उपलब्ध होता है। (३) तीसरे अनुशास्ति-द्वार में पूर्व आचार्य के द्वारा नूतनाचार्य एवं मुनि-मण्डल को दी गई हितशिक्षाओं का उल्लेख है। इसमें साधु को साध्वी एवं स्त्री के सम्पर्क से सम्भावित विविध दोषों का निर्देश किया गया है, साथ ही इस विषय पर सुकुमारिका का दृष्टान्त भी उपलब्ध होता है। इसी के साथ इसमें स्त्री के स्वरूप का एवं सिंहगुफावासी मुनि एवं कोशावेश्या की कथा का निर्देश किया गया है। इसके पश्चात् प्रवर्तिनी एवं साध्वीवर्ग को दी गई हितशिक्षा, वैयावच्च की महिमा, पार्श्वस्थादि के संसर्ग को त्यागने का उपदेश, कुसंसर्ग से होने वाले विविध दोष एवं शिष्यों द्वारा कृतज्ञभावपूर्वक हितशिक्षाओं को स्वीकार करने का विशिष्ट एवं विस्तृत वर्णन किया गया है। (४) चौथे परगणगवेषणा-द्वार के अन्तर्गत अन्य गच्छ में गमन के लिए आचार्य को भी स्वगच्छ से अनुमति माँगने का निरूपण है, साथ ही गच्छ के साधुओं द्वारा स्वगच्छ में रुकने की विनती एवं आचार्य के द्वारा उसका वात्सल्यपूर्ण उत्तर आदि का प्रदिपादन किया गया है। इसके पश्चात् यह निरूपित किया गया है कि यदि गच्छ की प्रार्थना से कोई आचार्य स्वगच्छ में अनशन (समाधिमरण) स्वीकार करता है, तो स्वगच्छ में रहने से 'आज्ञाकोप' आदि विनों
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org