Book Title: Jain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Author(s): Priyadivyanjanashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 514
________________ 476 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री उपसर्ग में मेरी मृत्यु होती है, तो मुझे यावज्जीवन के लिए आहार, आदि का त्याग है, किन्तु यदि यह उपसर्ग या संकट टल जाता है, तो मुझे सामान्य जीवन जीने का अधिकार है। विस्तृत समाधिमरण की साधना के सम्बन्ध में यह कहा गया है कि जब वृद्धावस्था के कारण जीवन का संध्याकाल अति सन्निकट प्रतीत हो, संयमी-जीवन जीना अपने लिए और दूसरों के लिए भारभूत बन गया हो, असाध्य रोगादि के कारण निकट भविष्य में ही मृत्यु की सम्भावना हो, तो वह व्यक्ति भावपूर्वक दीर्घ विधि से समाधिमरण को स्वीकार कर सकता है। इसी प्रसंग में ग्रन्धकार ने मरण के विविध रूपों की विस्तार से चर्चा की है और यह बताया है कि समाधिमरण के साधक को किस प्रकार का मरण स्वीकार करना चाहिए। साथ ही, इसी प्रसंग में मृत्यु की सन्निकटता को जानने के जो विविध उपाय हैं, उनकी चर्चा भी जिनचन्द्रसूरि ने प्रस्तुत कृति में की है। जिनचन्द्रसूरि ने यहाँ न केवल शारीरिक-लक्षणों के आधार पर मृत्यु की सन्निकटता को जानने के उपाय बताए हैं, अपितु उन्होंने देवता, शकुन, निमित्त, मन्त्र, आदि साधना से भी मृत्यु की सन्निकटता को जानने की विधि प्रस्तुत की है। यह तो सत्य है कि उस काल में ये विधियाँ प्रचलित थीं। आचार्य हेमचन्द्र ने भी अपने योगशास्त्र में इनका अनुसरण किया है, किन्तु इनकी वैज्ञानिक-सत्यता कितनी है- यह अन्वेषणीय है। इसके साथ ही प्रस्तुत अध्याय में समाधिमरण ग्रहण करने के योग्य स्थल, संस्तारक, आदि की खोज किस प्रकार करना चाहिए और किस प्रकार के संस्तर, आदि को ग्रहण करना चाहिए, इसकी भी विस्तृत चर्चा की गई है। इस अध्याय के अन्त में विजहणाद्वार के आधार पर समाधिमरण द्वारा मृत्यु को प्राप्त क्षपक की देह का विसर्जन किस प्रकार किया जाना चाहिए, इसका उल्लेख किया है। इस सम्बन्ध में पूर्वकृतियों एवं प्रस्तुत कृति से यह ज्ञात होता है कि प्राचीनकाल में मृत मुनि के देह का न तो दाह-संस्कार होता था और न ही उसे भूमि में गाड़ा जाता था, अपितु उस देह को पर्वत पर या जंगल में मुनियों द्वारा विसर्जित कर दिया जाता था। इस सम्बन्ध में कुछ टोने-टोटके का उल्लेख भी आवश्यकनियुक्ति, आवश्यकचूर्णि, भगवतीआराधना के समान ही इस कृति में भी देखने को मिलता है, यथा- शव की अंगुली आदि में छेद करना या बांधना, नक्षत्र के आधार पर तृण के पुतले बनाकर शव के साथ रखना, आदि। समाधिमरण की पूर्वपीठिका एवं देहविसर्जन-विधि पर प्रकाश डालने के उपरान्त प्रस्तुत शोधप्रबन्ध के अगले खण्ड में सर्वप्रथम समाधिमरण की आराधना-विधि की चर्चा करते हुए अल्पकालिक समाधिमरण की साधना और दीर्घकालिक समाधिमरण की साधना के स्वरूप का विवेचन किया गया है। उसके पश्चात दीर्घकालिक समाधिमरण की साधना की प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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