________________
474 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्री
प्रतीत होती है। विषयवस्तु के निरूपण की शैली की अपेक्षा से यह कृति वीरभद्रकृत आराधना - पताका से प्रभावित है।
तत्पश्चात् सामान्य आराधना के रूप में मुख्य रूप से गृहस्थधर्म और मुनिधर्म का विवेचन किया गया है। संवेगरंगशाला का वैशिष्ट्य यह है कि चाहे वह मूलतः समाधिमरण से सम्बन्धित ग्रन्थ हो, किन्तु उसमें समाधिमरण ग्रहण करने के पूर्व गृहस्थजीवन और मुनिजीवन में जो साधना की जाना चाहिए, उसका भी विस्तृत उल्लेख उपलब्ध होता है। संवेगरंगशाला के अनुसार समाधिमरण की साधना वही व्यक्ति सफलतापूर्वक कर सकता है, जिसने गृहीधर्म और मुनिधर्म का सम्यक् प्रकार से पालन किया हो, इसलिए प्रस्तुत कृति के दूसरे अध्याय में हमनें गृहस्थजीवन और मुनिजीवन के सामान्य आचार का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया है। गृहस्थ - आचार की पूर्व भूमिका के रूप में चाहे संवेगरंगशाला में स्पष्ट रूप से मार्गानुसारी- गुणों का उल्लेख न हुआ हो, किन्तु उसमें समाधिमरण ग्रहण करने के पूर्व श्रावक के द्वारा अपने पुत्र को दी जानेवाली हित- शिक्षाओं में अनेक मार्गानुसारी गुणों का उल्लेख हुआ है। जैन-धर्म का यह मानना है कि गृहीधर्म की आराधना के पूर्व व्यक्ति को सामान्य रूप से उन मानवीय गुणों का विकास कर लेना चाहिए, जिनके बिना गृहीधर्म का सम्यक् परिपालन सम्भव नहीं है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जैन-धर्म में धार्मिक या आराधक होने से पूर्व व्यक्ति का मनुष्य होना आवश्यक है । मानवीय गुणों के बिना कोई भी पुरुष किसी भी धर्म का आराधक नहीं माना जा सकता है। उत्तराध्ययनसूत्र के चतुर्थ अध्ययन की प्रथम गाथा में ही स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि मनुष्य के लिए जो बातें अत्यन्त दुर्लभ कही गईं हैं, उसमें सबसे प्रमुख मनुष्यत्व, अर्थात् मानवीय गुणों का विकास आवश्यक है। मानव शरीर को प्राप्त करना इतना कठिन नहीं है, जितना मानवीय गुणों को प्राप्त करना है। कोई भी व्यक्ति मानवीय गुणों के अभाव में अच्छा जैन, अच्छा बौद्ध, अच्छा हिन्दू या अच्छा मुसलमान नहीं हो सकता है। यही कारण है कि संवेगरंगशाला में समाधिमरण के लिए तत्पर गृहस्थ- आराधक भी सर्वप्रथम अपने पुत्र को मानवीय गुणों के विकास के लिए हित- शिक्षा देता है । जब तक व्यक्ति में मानवता का विकास नहीं होता, तब तक वह धार्मिक भी नहीं होता। जैन-धर्म के अनुसार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र की आराधना भी तभी सम्भव है, जब व्यक्ति का जीवन मानवीय गुणों से ओतप्रोत हो।
मानवीय गुणों के रूप में सप्तदुर्व्यसन- त्याग और मार्गानुसारी गुणों के पालन की चर्चा है। इसकी चर्चा के पश्चात् प्रस्तुत कृति के दूसरे अध्याय में गृहस्थों के बारह अणुव्रतों और उनके अतिचारों का विस्तृत उल्लेख किया गया है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org