Book Title: Jain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Author(s): Priyadivyanjanashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 522
________________ 484 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री प्राकृतिक-परिस्थिति के कारण - उस स्थानविशेष या देशविशेष का परिवेश अनुकूल नहीं होने पर व्यक्ति आत्महत्या करता है। ___ भौतिक-परिस्थिति के कारण - शारीरिक-अक्षमता, सामाजिक-प्रतिष्ठा पर आघात लगने के कारण, राजनीतिक-सन्त्रास के कारण तथा आर्थिक अभाव या बड़ा घाटा लगने के कारण। इनसे उत्पन्न समस्याओं से छुटकारा नहीं पाने से उनसे बचने हेतु ही व्यक्ति आत्महत्या कर लेता है। जस्टिस टी.के. तुकोल अपनी पुस्तक Sallekhana is not suicide में आत्महत्या के कारणों का उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि व्यक्ति मानसिक, शारीरिक, सामाजिक एवं व्यक्तिगत कष्टों से गम्भीर रूप से ग्रस्त होने पर ही आत्महत्या करता है। किसी भी व्यक्ति के समक्ष व्यक्तिगत समस्याओं में परिवार, विवाह, प्रेम, रोजी-रोटी, इष्ट-वियोग, अनिष्ट-मिलन, शारीरिक दुर्बलता, आदि की समस्याएँ होती हैं। एक ओर व्यक्ति में सामाजिक-स्तर पर समाज में अपना उच्च स्थान कायम रखने की, अधिक. धन-दौलत कमाने की, यश पाने की कामना रहती है; तो दूसरी ओर वह अपमान, ग्लानि, क्षोभ से बचना चाहता है। कभी-कभी व्यक्ति के समक्ष राजनीतिक-समस्या भी मुँह बाएं खड़ी रहती है। प्रत्येक व्यक्ति देश में सम्मान या देश के सर्वोच्च पदों को पाने की इच्छा रखता है, समस्याओं का निदान करना चाहता है। यदि यह सम्भव होता है, तो ठीक है, अन्यथा व्यक्ति आत्महत्या कर लेता है।827 युवाचार्य महाप्रज्ञजी के अनुसार व्यक्ति आत्महत्या किसी तरह के आवेश, आवेग या उत्तेजना के वशीभूत होकर करता है। इस अवस्था में व्यक्ति पहाड़ से लुढ़ककर, वृक्ष से गिरकर, आत्मदाह, विषपान, आदि बाहूय-विधियों की सहायता से आत्मघात करता है। 20 उपर्युक्त चिन्तन के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि आत्महत्या सामान्य व्यक्ति की नहीं, बल्कि असामान्य व्यक्ति की मनोदशा की परिचायक है। सामान्य अवस्था में व्यक्ति देहत्याग के विषय में सोच भी नहीं सकता है, लेकिन कुछ परिस्थितियोंवश समस्याओं के निराकरण में असफल होने पर वह देहत्याग कर देता है। व्यक्ति जब उत्तेजना की चरम सीमा को पार कर देता है, तब ही आत्महत्या करता है, मात्र सामान्य मोहग्रस्तदशा में वह देहत्याग नहीं 827 T.K. Tukol, Sallekhana is not suicide P.71 828 अणुव्रत, अप्रैल १६८८, पृ. २४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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