Book Title: Jain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Author(s): Priyadivyanjanashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 527
________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 489 हो जाता है, किन्तु यदि उसे वह प्रतिष्ठा, इज्जत वापस मिलती है, तो वह आखिरी किनारे से, यानी मौत से वापस लौटकर आने को तत्पर रहता है। किसी का धन, पद, आदि खो जाता है, तो वह मरने को तैयार हो जाता है। इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति मृत्यु नहीं चाहता है, उसमें एक जीवन का इतना प्रबल आग्रह है कि वह यह निर्णय लेता है कि मैं इस धन, पद या सम्मान के साथ ही जीऊँगा, यदि यह धन, पद, सम्मान नहीं है, तो मैं मर जाऊँगा। इस प्रकार जीने की आकांक्षा एक विशिष्ट आग्रह को पकड़ लेती है। वह आग्रह इतना गहरा भी हो सकता है कि वह पूर्ण नहीं होकर अपने से विपरीत भी जा सकता है। मरने तक को तैयार हो सकता है, लेकिन गहराई में जीवन की ही आकांक्षा है। जितनी भी आत्महत्याएँ की जाती हैं, आवेश के क्षणों में ही की जाती हैं, वह क्षण खत्म हो जाए, तो आत्महत्या नहीं हो सकती है। आवेश क्षणिक होता है। उस आवेश में आदमी इतना पागल हो जाता है कि वह नदी में, कूद पड़ता है, अपने को आग में जला देता है, या जहर पी लेता है। इस तरह यह स्पष्ट होता है कि समाधिमरण एवं आत्महत्या भिन्न-भिन्न है, क्योंकि पूर्वोक्त विवेचन से यह सिद्ध होता है कि समाधिमरण एवं आत्महत्या के कारण, उद्देश्य, परिस्थिति आदि में पूर्णतः भिन्नता है। जहाँ तक आत्मघात विकृत चित्तवृत्ति का परिणाम है, तो समाधिमरण निर्विकार मानसिकता का फल है। आत्मघात में जहाँ मरने का लक्ष्य है, तो समाधिमरण का ध्येय समभावपूर्वक मृत्यु को मित्र बनाकर अपने सद्गुणों की रक्षा हेतु शरीर के मोह का त्याग है। एक का लक्ष्य अपने जीवन को बिगाड़ना है, तो दूसरे का लक्ष्य जीवन को संवारना है। आत्महत्या के समय व्यक्ति खिन्नता, उद्विग्नता तथा पराजयता के भावों का शिकार होता है, जबकि समाधिमरण का साधक प्रसन्नता, समता, निर्भयता तथा वासनाओं पर आत्मा की विजय के भावों से सराबोर होता है। किसी कृति का मूल्यांकन केवल इन तथ्यों पर निर्भर नहीं होता है कि कृति कब और किस भाषा में लिखी गई, कृतिकार कौन है और कृति की विषयवस्तु क्या है, अथवा यह कि कृति अपने पूर्वाचार्यों की कृतियों से किस प्रकार प्रभावित है और उसने अपने परवर्ती आचार्यों को किस रूप में प्रभावित किया है। संवेगरंगशाला के सम्बन्ध में हमने इन सभी तथ्यों पर विचार भी करने का प्रयास किया है, लेकिन ये सब समीक्षाएँ कृति के कलेवर को ही छू पाती हैं, उसकी अन्तरात्मा को नहीं। किसी भी कृति की संरचना के पीछे लेखक का कोई मूलभूत प्रयोजन होता है, कोई लक्ष्य होता है, जिसे वह कृति के माध्यम से अभिव्यक्त करना चाहता है। कृति की रचना में कृतिकार का सन्देश सबसे अधिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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