Book Title: Jain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Author(s): Priyadivyanjanashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 517
________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 479 जिनचन्द्रसूरि ने इन्द्रियदमन की आवश्यकता पर अत्यधिक बल दिया है, किन्तु समाधिमरण का मुख्य लक्ष्य तो कषायों से ऊपर उठना चाहिए, इसकी चर्चा संवेगरंगशाला के आधार पर की है। कषायों का सम्बन्ध लेश्याओं, अर्थात मनोभावों से होता है। जैसे-जैसे व्यक्ति कषायों से ऊपर उठता है, वैसे-वैसे उसकी लेश्याओं की विशुद्धि होती है, अतः यहाँ हमने जैन-दर्शन के अनुसार षट्लेश्याओं की चर्चा करते हुए यह बताया है कि समाधिमरण का साधक किस प्रकार अप्रशस्त लेश्याओं से ऊपर उठकर प्रशस्त लेश्याओं के माध्यम से शुभ एवं शुद्ध भावों में अपने ध्यान को केन्द्रित करे। इसीलिए प्रस्तुत चतुर्थ अध्याय में हमने संवेगरंगशाला के आधार पर चार ध्यानों का उल्लेख करते हुए यह प्रतिपादित किया है कि साधक को आर्त्त और रौद्र-ध्यान से ऊपर उठकर धर्म और शुक्लध्यान पर आरूढ़ होना चाहिए। धर्मध्यान और शुक्लध्यान पर आरूढ़ होने के लिए उनके स्वरूप का बोध भी आवश्यक है, इसलिए प्रस्तुत अध्याय में हमने इन ध्यानों के लक्षण, प्रकार आदि की विस्तृत चर्चा की है और यह बताया है कि इन ध्यानों के विभिन्न चरणों से विकास करते हुए अन्त में साधक अप्रतिपाति-क्रियाव्युच्छेद-शुक्लध्यान को प्राप्त करके निर्वाण को प्राप्त कर लेता है। समाधिमरण की आराधना विधि के विस्तृत विवेचन के पश्चात प्रस्तुत कृति के अगले भाग में संवेगरंगशाला की आराधना से सम्बन्धित कथाओं को संक्षेप में प्रस्तुत करने का प्रत्यन किया है। जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया गया है कि संवेगरंगशाला के वृहदाकार का कारण उसमें आराधना से सम्बन्धित कथाओं का विस्तृत विवेचन है। संवेगरंगशाला में आराधना सम्बन्धी विविध पक्षों के प्रस्तुतिकरण के साथ-साथ सामान्यतया एक और कहीं-कहीं दो-दो कथाएँ भी उल्लेखित हैं। संवेगरंगशाला में उल्लेखित ये सभी कथाएँ आचार्य जिनचन्द्रसूरि को अपनी पूर्व परम्परा से ही प्राप्त रहीं हैं। प्रस्तुत कृति के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रस्तुत कथाओं में कोई भी कथा आचार्य जिनचन्द्रसूरि की अपनी कल्पना नहीं है। उन्होंने इन कथाओं का चयन मुख्यतः आगमों एवं आगमिक-व्याख्या-साहित्य के आधार पर किया है। संवेगरंगशाला में आराधना से सम्बन्धित विभिन्न सन्दों में ६६ कथाएँ दी गई हैं। इनमें से कुछ कथाएँ तो भगवतीसूत्र, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, उत्तराध्ययन, आदि अंग-आगमों में उल्लेखित हैं, किन्तु अधिकांश कथाएँ आवश्यकनियुक्ति, आचारांगनियुक्ति, ओघनियुक्ति, आवश्यकमूल-भाष्य, विशेषावश्यकभाष्य, आवश्यकचूर्णि, उत्तराध्ययनचूर्णि, निशीथचूर्णि, बृहत्कल्पभाष्य, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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