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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 475
सप्तदुर्व्यसन-त्याग और मार्गानुसारी गुणों का परिपालन यह बताता है कि यह व्यक्ति जैन-गृहस्थ होने की योग्यता रखता है। यद्यपि प्रस्तुत ग्रन्थ में इनका क्रमबद्ध विवेचन तो उपलब्ध नहीं है, किन्तु प्रकीर्ण रूप से इनकी चर्चा हमें मिल जाती है, जिसका निर्देश समाधिमरण के इच्छुक पिता द्वारा पुत्र को दी जानेवाली हित-शिक्षा में मिलता है। गृहस्थधर्म की चर्चा के अन्तर्गत बारह अणुव्रतों और श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का उल्लेख भी इस ग्रन्थ में संक्षिप्त रूप से ही मिलता है। जहाँ तक संवेगरंगशाला में श्रावकधर्म के विवेचन का प्रश्न है, इस ग्रन्थ में दो सन्दों में श्रावकधर्म का विवेचन हुआ है-प्रथम तो समाधिमरण के इच्छुक साधक के द्वारा अपने पुत्र को दी जानेवाली शिक्षा में तथा दूसरे ग्यारह प्रतिमाओं की क्रमिक-साधना के सन्दर्भ में। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रस्तुत कृति परवर्ती दिगम्बर-विद्वान् आशाधर के समान ग्यारह प्रतिमाओं को आधार बनाकर ही गृहस्थ-धर्म का विवेचन प्रस्तुत करती है। इसमें दूसरी व्रत-प्रतिमा की चर्चा में ही पाँच अणुव्रतों की चर्चा हुई है, गृहस्थ के शेष व्रतों का उल्लेख नहीं हुआ है। अन्त में, श्रावक को समाधिमरण के लिए प्रेरित किया गया है।
जहाँ तक मुनिजीवन का प्रश्न है, प्रस्तुत कृति में पंच-महाव्रत, पंचसमिति, त्रिगुप्ति, दस यतिधर्म, बाईस परीषह, बारह प्रकार के तप, आदि का उल्लेख उपलब्ध होता है। इस प्रकार इस कृति का द्वितीय अध्याय गृहस्थधर्म और मुनिधर्म की सामान्य विवेचना में, श्रावकधर्म की प्रस्तुत विवेचना में जिनचन्द्रसूरि ने प्राचीन परम्परा का ही अनुसरण किया है, अपनी ओर से कोई नवीन तथ्य प्रस्तुत नहीं किया है।
इस शोधप्रबन्ध में गृहस्थधर्म और मुनिधर्म के विवेचन के पश्चात् समाधिमरण की पूर्वपीठिका के रूप में उन बातों का मुख्य रूप से विवेचन किया है, जिनका ज्ञान और अनुसरण समाधिमरण को ग्रहण करने के पूर्व आवश्यक है। समाधिमरण कौन ग्रहण कर सकता है, उसकी क्या योग्यता या अर्हता होना चाहिए, इसकी चर्चा इस भाग में की गई है। प्रस्तुत चर्चा में सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि समाधिमरण को स्वीकार करने की योग्यता उसी व्यक्ति में होती है, जिसको मृत्यु अपने अति सन्निकट प्रतीत हो और जिसके मरण की अपरिहार्य स्थिति बन गई हो, तब साधक द्वारा समाधिमरण स्वीकार किया जा सकता है। इस सम्बन्ध में विशेष रूप से यह ज्ञातव्य है कि यदि स्वस्थ होते हुए भी और युवावस्था में भी असाध्यरोग या प्राणान्तक संकट के कारण अचानक मृत्यु की स्थिति अपरिहार्य बन गई हो, तो साधक को संक्षिप्त विधि के द्वारा सागारी-संथारा स्वीकार करना चाहिए, अर्थात् यह प्रतिज्ञा ग्रहण करना चाहिए कि यदि इस
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