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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 369
पूछा- "कौन से ज्ञान से?" "अप्रतिपाती ज्ञान के द्वारा।" यह सुनकर- 'धिक्कार हो! मुझे धिक्कार हो! मैंने केवली की आशातना की है'- इस तरह आचार्य शोक करने लगे। तब साध्वी ने कहा- "हे मुनिश्वर ! शोक मत करो, क्योंकि 'यह केवली है'- ऐसा जाहिर हुए बिना केवली भी पूर्व व्यवहार को नहीं छोड़ते हैं।" फिर आचार्य ने पूछा- “मैं दीर्घकाल से उत्तम चारित्र की आराधना करता हूँ। मैं निर्वाण-पद को प्राप्त करूँगा या नहीं?" साध्वीजी ने कहा- "हे मुनिशः! निर्वाण के लिए संशय क्यों करते हो, क्योंकि गंगा नदी के पार उतरकर तुम भी शीघ्र ही कर्मक्षय करोगे।"
यह सुनकर आचार्य गंगा पार करने हेतु नाव पर बैठे। आचार्य के नाव पर बैठते ही वह नाव डूबने लगी। इससे, सर्व का नाश होगा- ऐसा जानकर निर्यामक ने आचार्य को उठाकर नदी में फेंक दिया। यह जानकर आचार्य प्रशम-रस में सम्पूर्ण निमग्न हो सभी आश्रवद्वारों को रोकनेवाले शुक्लध्यान में स्थिर हुए, जिससे उन्होंने कर्मों का क्षय करके केवलज्ञान को प्राप्त किया। जल में ही सर्वयोगों का सम्पूर्ण निरोध करके मोक्षपद प्राप्त किया।
इस तरह कठिन उपसों में भी समता धारणकर आराधनापूर्वक साधक अन्तकृत केवली बन सकता है, अतः मुनिश्रेष्ठ तप के द्वारा समाधि में निमग्न होकर सहजता से अनादिकाल के कर्मों को क्षयकर शाश्वत सुखों को प्राप्त कर सकता है।
संस्तारक या संथारा, जीवन की उस निष्काम, निःसंग और स्थितप्रज्ञ स्थिति में प्रवेश है, जहाँ न तो भोगों की कामना शेष रहती है, न शरीर के प्रति आसक्ति। क्षुधा की पीड़ा, शरीर की वेदना, स्वजन और मित्रों की ममता और कषायों की तपन-सब कुछ वहाँ शान्त हो जाती है। प्रायश्चित्त द्वारा वह अपनी आत्मा की शुद्धि कर लेता है और परम प्रसन्न, शान्त और निर्विकार स्थिति में आत्मरमण करने लगता है। संवेगरंगशाला में अग्नि के उपसर्ग के सम्बन्ध में गजसुकमाल की कथा वर्णित है। यह कथा आवश्यकचूर्णि (भाग १, पृ. ३५५-३५८, ३६२-६०४), व्यवहारसूत्रभाष्य (भाग-४ पृ. १०५), अन्तकृतदशा (वर्ग-६), मरणसमाधि (गाथा ६३७), महानिशीथ (१७६), वृहत्कल्पभाष्य (गा. ६१६६), आदि में भी उपलब्ध होती है। जल के उपसर्ग के सम्बन्ध में अर्णिकापुत्र आचार्य के समाधिमरण की कथा का विवेचन आचार्य जिनचन्द्रसूरि ने किया है। यह कथानक हमें आवश्यकचूर्णि ( भाग २, पृ. १७७, ३६), संस्तारक (गाथा ५६, ५७), निशीथचूर्णि (भाग २, पृ. २३१), आवश्यकवृत्ति (पृ. ४२१-३०), आदि ग्रन्थों में भी उपलब्ध होता है।
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