Book Title: Jain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Author(s): Priyadivyanjanashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 451
________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 413 अपने ही समान वैभववाली कुबेर सेठ की पुत्री के पास एक दूती भेजकर कहलवाया कि यदि वह बिना विकल्प के, धनरक्षित जो कहे उसे स्वीकार करे, तो धनरक्षित उसका विवाह कामदेव के समान रूपवाले पुरुष के साथ करा देगा । उसने निःशंकता से उसकी बात स्वीकार कर ली। धनरक्षित ने उसे रात्रि में मुकुन्द के मन्दिर में आने को कहा। धनरक्षित विवाह की उचित सामग्री लेकर प्रसन्नचित्त होकर धर्मदेव के साथ मुकुन्द मन्दिर पहुँचा । उसी समय सिंहपुत्री भी मन्दिर में आई। तत्पश्चात् संक्षिप्त में दोनों की विवाहविधि पूर्ण की गई। धनरक्षित ने हर्षित होकर एक दीपक उसके सामने रखकर कहा - "हे भद्रे ! पति के मुख का दर्शन तो कर।" उसने लज्जापूर्वक अपना मुख धीरे-धीरे ऊपर उठाया और दीपक के प्रकाश में धर्मदेव के वीभत्स चेहरे को देखा । उसका स्वयं का मुख भी वैसा ही था, केवल दाढ़ी-मूंछ के बालों से रहित होने का ही भेद था । वह क्रोधित हुई तथा मुँह मोड़कर कहने लगी- "हे धनरक्षित! निश्चय ही तूने मुझे धोखा दिया है। कामदेव के समान कहकर पिशाच के समान व्यक्ति से मेरा विवाह करवाकर तूने मेरी आत्मा का अपमान किया है । " धनरक्षित ने कहा- “ इसमें मेरा क्या दोष है ? विधाता ने ही तुम दोनों की योग्य जोड़ी बनाई है, अतः मेरे प्रति क्रोध करने से क्या लाभ?” तब वह स्त्री तीव्र क्रोध के कारण दांत से होठ काटती हुई अस्पष्ट आवाज से मन्द मन्द कुछ बोलती रही और कंकणों को उतारकर शीघ्रता से मुकुन्द के मन्दिर से निकलकर चली गई । धनरक्षित ने अपने मित्र से कहा- "हे मित्र ! तू क्यों कुछ भी नहीं बोल रहा है?" अति दुःखित मन से उसने सरलतापूर्वक कहा- “हे भाई! अब बोलने जैसा रहा भी क्या है, जो मैं बोलूं । जा तू अपने घर चला जा। अब मुझे भी जीने से क्या प्रयोजन है?” ऐसा कहते हुए वहाँ से निकलकर धर्मदेव ने एक तापस मुनि के पास दीक्षा स्वीकार कर ली। अज्ञान तप करके अन्त में मरकर वह देवलोक में उत्पन्न हुआ। वहाँ से चलकर वह धनपति सेठ का पुत्र वसुदेव बना । रूपमद से अत्यन्त उन्मत्त मनवाला धनरक्षित प्रायश्चित्त किए बिना ही मृत्यु को प्राप्त हुआ। इससे वह लम्बे समय तक तिर्यंच, आदि निम्न गतियों में भ्रमण करता रहा। तत्पश्चात् वह सर्व अंगों से विकल एवं रूप - लावण्य से रहित उसी सेठ का स्कन्धक नाम का पुत्र बना।" इस तरह आचार्य ने कहा कि तुम लोगों ने जो परमार्थ पूछा, वह यही है । सच भी है कि शुक्र और रुधिर के संयोग से जिस रूप की उत्पत्ति होती है, प्रथम तो उस रूप को प्राप्त कर मद करना ही योग्य नहीं है, क्योंकि इस पुद्गल का स्वभाव ही सड़ना - गलना और विध्वंस होना है। जो ऐसे नाशवन्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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