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ढंढण मुनि की कथा
लाभान्तराय नामक कर्म के क्षयोपशम से लाभ का उदय होता है और पुनः उससे अलाभ भी होता है, इसलिए विवेकी पुरुष को लाभ होने पर 'मैं लब्धिवन्त हूँ’- ऐसा अहंकार नहीं करना चाहिए और लाभ नहीं होने पर विषाद भी नहीं करना चाहिए - 80
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मगधदेश में धन्यपुर नामक एक श्रेष्ठ गांव था । वहाँ कृशी पाराशर नाम का धनाढ्य ब्राह्मण रहता था। वह धन के लिए खेती आदि जो भी कार्य करता, उसमें उसे लाभ ही लाभ होता था । ' यह लक्ष्मी का फल है'- ऐसा मानता हुआ वह अपने स्वजनों के साथ आनन्द से रहता था। मगध के राजा के आदेशानुसार गांव के पुरुषों को पांच सौ हलों से हमेशा राजा का खेत जोतना होता था। जब किसान भोजन के साथ राजा के खेत की जुताई से निवृत्त हो जाते, तब वह ब्राह्मण निर्दयतापूर्वक उसी समय उन भूख से पीड़ित किसानों से अपने खेत में कार्य करवाता था। उस निमित्त से उस ब्राह्मण ने गाढ़ अन्तरायकर्म का बन्ध किया और अन्त में मरकर वह नरकक- गति को प्राप्त हुआ। वहाँ से चलकर विविध तिर्यंच योनियों में उत्पन्न होता हुआ और किसी तरह पुण्य का उपार्जन कर उसने देवभव और मनुष्यभव को प्राप्त किया। कालान्तर में उसने श्रीकृष्ण वासुदेव के ढणकुमार नामक पुत्र के रूप में जन्म लिया । सर्व कलाओं का अभ्यास कर वह पुत्र क्रमशः यौवनवय को प्राप्त हुआ और अनेक युवतियों के साथ विवाह कर वह कामदेवसदृश भोग-विलास करने लगा।
जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 421
किसी दिन अठारह हजार उत्तम साधुओं से युक्त शासन प्रभावक श्री अरिष्टनेमि भगवान् ग्रामानुग्राम विचरते हुए द्वारका नगरी के रैवत नामक उद्यान में पधारे। उद्यानपालक ने भगवान् के आगमन की सूचना श्रीकृष्ण महाराज को दी। ऐसा शुभ समाचार सुनकर श्रीकृष्ण ने उसे उचित दान दिया और यादवों सहित वे नेमिनाथ भगवान् को वन्दनार्थ निकले। फिर भगवान् तथा मुनियों को वन्दन करके सभी ने अपने योग्य स्थान ग्रहण किया । जिनेश्वर भगवान् ने सर्व-साधारण को अपनी वाणी से धर्मदेशना देना प्रारम्भ किया। उनकी वाणी को सुनकर ढंढणकुमार सहित अनेक प्राणियों को प्रतिबोध हुआ । ढंढणकुमार ने विषय-सुखों का त्याग कर प्रभु के पास दीक्षा स्वीकार की । सदा संसार की असारता का चिन्तन करते हुए तथा श्रुतज्ञान का अभ्यास करते हुए ढंढणमुनि सर्वज्ञ परमात्मा के साथ विचरने लगे। इस तरह विचरते हुए ढंढणमुनि ने पूर्वभव
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संवेगरंगशाला, गाथा ६८६३-६६३७.
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