Book Title: Jain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Author(s): Priyadivyanjanashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

Previous | Next

Page 508
________________ 470 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री यही कारण है कि आगमों एवं प्रकीर्णक-ग्रन्थों के अतिरिक्त भी उसमें भगवतीआराधना, मरणसमाधि, आराधनापताका, संवेगरंगशाला, आदि समाधिमरण से सम्बन्धित अनेक स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखे गए हैं। प्रस्तुत गवेषणा में मैंने समाधिमरण की साधना से सम्बन्धित संवेगरंगशाला का चयन विशेष रूप से इसलिए किया है कि समाधिमरण सम्बन्धी जो भी साहित्य आज उपलब्ध है, उन सभी में यह ग्रन्थ सबसे विशाल है तथा प्राचीन होते हुए भी विगत पच्चीस-तीस वर्षों में ही प्रकाश में आया है। मरणसमाधि, भगवतीआराधना, आराधनापताका तथा वीरभद्रकृत आराधनापताका, आदि समाधिमरण से सम्बन्धित इन सभी स्वतन्त्र ग्रन्थों में संवेगरंगशाला ही एक ऐसा ग्रन्थ है, जो लगभग दस हजार गाथाओं में समाप्त होता है। यह ग्रन्थ लगभग ईसा की ११वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध का है, किन्तु समाधिमरण पर लिखे जानेवाले स्वतन्त्र ग्रन्थों की श्रृंखला में प्राकृत भाषा में रचित यह अन्तिम ग्रन्थ है। इसके पश्चात् प्राकृत-भाषा में समाधिमरण से सम्बन्धित इतना विशाल आकर ग्रन्थ लिखा गया हो, ऐसा हमारी जानकारी में नहीं है। संस्कृत और मरुगुर्जर में भी इस विषय पर इतना विशाल ग्रन्थ नहीं लिखा गया है। इस प्रकार समाधिमरण पर प्राकृत-भाषा में रचित भारतीय-साहित्य का यह अन्तिम ग्रन्थ है, जो समाधिमरण की प्राचीन परम्परा को अपने में समेटे जहाँ तक संवेगरंगशाला का प्रश्न है, यह कृति आज से लगभग ४० वर्ष पूर्व तक विद्वानों को अप्राप्त ही थी। मात्र कुछ ग्रन्थों में इसके लिखे जाने की सूचना थी, तो कुछ भण्डारों में ही इसकी हस्तप्रत उपलब्ध होने की सूचना थी, किन्तु इस कृति के सम्बन्ध में विशेष जानकारियों का प्रायः अभाव था। यही कारण है कि जैन-साहित्य के बृहद् इतिहास, भाग-५, जो प्रथमतः ईस्वी सन् १६६६ में छपा था, उसमें स्पष्ट रूप से यह निर्देश किया गया है कि यह कृति अभी तक अप्रकाशित है। प्रस्तुत कृति का सर्वप्रथम प्रकाशन विक्रम संवत् २०२५, तदनुसार ईस्वी सन् १६६६ में मूल गाथाओं के रूप में जवेरी कान्तिलाल मणिलाल मुम्बई के द्वारा किया गया। इसका सम्पादन आचार्य विजयमनोहरसूरि के शिष्य हेमेन्द्रविजयजी ने किया है। उसके पश्चात् इस कृति को उन्हीं आचार्य विजयमनोहरसूरि के शिष्य आचार्य भद्रंकरसूरि ने गुजराती अनुवाद के साथ विक्रम संवत् २०३२, तदनुसार ईस्वी सन् १६७६ में महावीर जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ पालड़ी अहमदाबाद के द्वारा प्रकाशित करवाया। इसी क्रम में विक्रम संवत् २०४१, तदनुसार ईस्वी सन् १९८५ में पन्यास श्रीपद्मविजयजी के द्वारा इसका मात्र हिन्दी-अनुवाद मेरठ से प्रकाशित किया गया है। इस प्रकार इस ग्रन्थ के प्रकाश में आने की कथा अधिक पुरानी नहीं है। ग्रन्थ की अनुपलब्धता के कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540