Book Title: Jain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Author(s): Priyadivyanjanashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 493
________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 455 समरधीर की कथा संवेगरंगशाला में समरधीर राजा का कथानक यह बताता है कि चक्षुरेन्द्रिय के विषयों में आसक्त होने का क्या परिणाम होता है:-819 पद्मखण्ड नगर में समरधीर नामक राजा राज्य करता था। वह न्यायप्रिय और नीतिवान् था। वह परस्त्री को माता के समान, परधन को तृण के समान और पर कार्य को अपने कार्य के समान समझता था, अपने जीवन से अधिक दूसरे के जीवन को महत्व देता था। एक दिन शिव नामक सार्थपति ने राजा से कहा- "हे देव! मेरी उन्मादिनी नामक एक पुत्री है, जिसका रूप रम्भा को भी लज्जित करनेवाला है। वह स्त्रियों में रत्नभूत है और आप रत्नों के नाथ हैं। यदि आपको उचित लगे, तो उस रत्न को स्वीकार करें। हे देव! आपको दिखाए बिना अपना कन्यारत्न किसी अन्य को दूं, तो मेरी स्वामीभक्ति किस तरह गिनी जाएगी। इस कारण हे देव! आपके अतिरिक्त अन्य कोई उसका पति न हो।" राजा ने उसके कहने पर कुछ विश्वासी व्यक्तियों को उसके साथ भेजा। वहाँ उन लोगों ने उस कन्या को देखा और उसके रूप पर आकर्षित हुए। फिर वे मदोन्मत्त बने, इस तरह एकान्त में बैठकर विचार करने लगे'इसके रूप एवं अंग की शोभा तो अप्सरा को भी पराजित करनेवाली है। हमारे जैसे वयोवृद्ध भी इसके दर्शनमात्र से कामासक्त हो गए हैं, तो विषयासक्त राजा इसके वश से पराधीन कैसे नहीं होगा। फिर परवश बने राजा से राज्य की व्यवस्था नहीं सम्भाली जाएगी।' ऐसा विचारकर वे सब राजसभा में आए। राजा को आदरपूर्वक नमस्कार कर वे कहने लगे- "हे देव! वह कन्या रूपादि सर्व गुणों से सुशोभित है। केवल पति का वध करनेवाली होने से दृष्ट लक्षणवाली है।" ऐसा सुनकर राजा ने उस कन्या से विवाह के विचार को छोड़ दिया। फिर सार्थवाह ने राजा के सेनापति के साथ उस कन्या का विवाह किया। सेनापति उसके रूप-लावण्य पर आकर्षित होकर उसके वश में हो गया। __ कुछ दिन व्यतीत होने के पश्चात् एकदा राजा उस सेनापति के साथ घूमने के लिए निकला। इधर सेनापति की पत्नी ने सोचा कि राजा ने मुझे अपलक्षणी होने से स्वीकार नहीं किया, लेकिन मैं तो उसके दर्शन करूं। ऐसा विचारकर वह अति मूल्यवान् वस्त्र धारण कर मकान पर चढ़कर राजा को देखने लगी। राजा भी क्रीड़ा करके पुनः लौट रहा था कि अचानक घोड़े पर सवार राजा 819 संवेगरंगशाला, गाथा ६०२५-६०७५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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