Book Title: Jain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Author(s): Priyadivyanjanashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 496
________________ 458 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री बिलाव ने पाकशाला से माँस का हरण कर लिया। इससे भयभीत हुए रसोइए ने कसाई की दुकान से माँस खरीदना चाहा, किन्तु उसे माँस नहीं मिला। तब किसी अज्ञात बालक को एकान्त में मारकर उसके माँस को बहुत अच्छी तरह संस्कारित कर, अर्थात् स्वादिष्ट बनाकर रसोइए ने भोजन के समय उसे राजा को दिया। मांस खाकर प्रसन्न हुए राजा ने कहा- “हे रसोइए! कहो, यह माँस कहाँ से मिला है?" उस रसोइए ने मांस को जिस प्रकार से प्राप्त किया, वैसा बता दिया। यह सुनकर रसासक्ति से पीड़ित राजा ने मनुष्य के माँस की प्राप्ति के लिए रसोइए को उत्साहित किया। इससे राजपुरुषों से घिरा हुआ वह रसोइया हमेशा मनुष्य को मारकर उसका माँस राजा के लिए बनाता था। इस प्रकार बहुत दिन व्यतीत होने पर न्यायाधीश ने उस राजा को राक्षस समझकर एकदा रात्रि में बहुत मदिरा पिलाकर जंगल में फिकवा दिया। वहाँ भी वह हाथ में गदा पकड़कर उस मार्ग में आते-जाते मनुष्य को मारकर खाता था और यम के समान निःशंक होकर घूमता रहता था। किसी समय रात्रि में उस प्रदेश से एक सार्थ निकला, परन्तु सोया हुआ राजा उस सार्थ को नहीं जान सका, केवल किसी कारण से उसने अपने साथियों से अलग पड़े मुनियों को आवश्यक-क्रिया करते देखा। वह पापी उनको मारने के लिए उनके समीप गया, परन्तु तप के प्रबल तेज से पराभव होते साधु के पास खड़ा रहना भी उसके लिए अशक्य बना, तब वह धर्म श्रवणकर उसका चिन्तन करते हुए प्रतिबोध को प्राप्त हुआ, परन्तु अपने रसना के दोष से वह राज्यभ्रष्टता आदि को प्राप्त हुआ। इन्द्रियों का स्वभाव अपने विषय को ग्रहण करना है एवं चेतना का कार्य गृहीत विषयों में आसक्त होना है। एक इन्द्रिय का विषय भी यदि प्राणी के प्राणों को संकट में डाल देता है, तो जहाँ पाँचों इन्द्रियों की विषय-सेवन वृत्तियाँ तन्मय हों, वहाँ प्राणी की क्या दशा होगी? जैसे- आटे की गोली में लुब्ध बनी मछली आटा देखती है, काँटा नहीं; वह काँटा गले में फँसकर उसके प्राणहरण कर लेता है, उसी प्रकार रसनेन्द्रिय के विषय में फंसे हुए सोदास नामक राजा को जंगल में फेंक दिया जाता है। उपर्युक्त विषय पर संवेगरंगशाला में सोदास राजा का जो कथानक उपलब्ध होता है, उसके संकेत हमें आवश्यकचूर्णि (भाग-१, पृ. १०६,५३४, भाग-२, पृ.२७१), आवश्यकवृत्ति (पृ. ४०१), विशेषावश्यकभाष्य (गा. ३५७७), आचारांगवृत्ति (पृ. १५४), भक्तपरिज्ञा (गा. १४५), आदि अनेक प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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