Book Title: Jain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Author(s): Priyadivyanjanashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 502
________________ 464 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री मृत्यु को प्राप्त हुआ और सातवीं नरक में उत्कृष्ट आयुष्यवाला नरक का जीव बना। संयम के लिए पराक्रम, शक्ति (सत्व), बल, वीर्य, बुद्धि, कुल, आदि के लिए जो निदान करता है, वह प्रशस्त निदान माना गया है और अभिमान के कारण जो निदान करता है, वह अप्रशस्त माना गया है। संयम के शिखर पर आरूढ़ होने वाली, कठिन तपस्या करनेवाली और त्रिगुप्ति से गुप्त आत्मा भी परीषह से पराभव प्राप्त कर और अनुपम शिवसुख की अवगणना करके अति तुच्छ विषय-सुख के लिए निदान करती है, वह काँच की मणि के लिए वैदूर्यमणि को खो देती है। संवेगरंगशाला के प्रस्तुत कथानक में निःशल्यता का वर्णत करते हुए निदानशल्य के अनेक प्रकारों का उल्लेख किया गया है। इसमें संयम हेतु पराक्रम, सत्व, बल, वीर्य, संघयण, बुद्धि, स्वजन, कुल, आदि के सम्बन्ध में जो निदान किया जाता है, उसे प्रशस्तनिदान कहा गया है एवं मान, कषाय, आदि की पूर्ति हेतु सौभाग्य, जाति, कुल, रूप, पद, आदि का जो निदान किया जाता है, उसे अप्रशस्तनिदान कहा है। निदान के दुष्परिणामों के सन्दर्भ में ग्रन्थकार ने जो . ब्रह्मदत्त की कथा दी है, वह हमें व्यवहारवृत्ति (भाग ४, पृ. ४१), बृहत्कल्पवृत्ति (१६००), उत्तराध्ययनचूर्णि (पृ. २१४), आदि ग्रन्थों में भी उपलब्ध होती है। पीठ एवं महापीठ मुनियों की कथा जो चारित्र-व्रत का सम्यक् पालन करते हुए अल्प अतिचार लगने पर उसकी आलोचना नहीं करता है, परन्तु मायायुक्त रहता है तथा मायाशल्य को त्यागे बिना लम्बे समय तक तप का कष्ट सहन करता है, उस आत्मा को उस तप का शुभ फल भी नहीं मिलता है। चिरकाल तक दुष्कर तप करनेवाले पीठ और महापीठ- दोनों को स्त्रीत्व प्राप्त हुआ। इस सम्बन्ध में संवेगरंगशाला में पीठ और महापीठ मुनियों की निम्न कथा का उल्लेख है:- 824 राजा, मन्त्री, सेठ, सार्थपति एवं वैद्य- इन पाँचों के पाँच पुत्र आपस में मित्र थे। उनमें वैद्य का पुत्र ऋषभदेव भगवान् का जीव था। एक समय उन्होंने कुष्ठ-रोग से ग्रस्त क्षीण हुए शरीरवाले एक मुनि को धर्म-ध्यान में लीन देखा। इससे वैद्यपुत्र को उनकी सेवाभक्ति करने की इच्छा प्रकट हुई। सभी ने मिलकर 824 संवेगरंगशाला, गाथा ६२२४-६२४५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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