Book Title: Jain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Author(s): Priyadivyanjanashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 503
________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप /465 उनकी चिकित्सा की, इससे श्रेष्ठ पुण्य का बन्ध किया और आयुष्य पूर्ण होने पर पांचों मरकर अच्युत देवलोक में समृद्धशाली देव बनें। फिर पांचों वहाँ से चलकर इसी जम्बूद्वीप में पुण्डरीकिणी नामक नगरी में इन्द्र से पूजित वज्रसेन राजा की धारणीदेवी की कुक्षी से अतिसुन्दर पुत्ररूप में उत्पन्न हुए। वे पाँचों कुमार वृद्धि करते हुए यौवनावस्था को प्राप्त हुए। उनमें प्रथम वज्रनाभ चक्रवर्ती, दूसरा बाहुकुमार, तीसरा सुबाहुकुमार, चौथा पीठ और पाँचवां महापीठ नाम से प्रसिद्ध हुआ। तीर्थकर-नामकर्म के कारण वज्रसेन राजा ने अपना पद, राज्य, वज्रनाभ चक्रवर्ती को सौंप दिया और स्वयं दीक्षा स्वीकार कर उत्तम साधुत्व में, मोह को जीतकर केवलज्ञान को प्राप्त कर भव्य जीवों को प्रतिबोध करते हुए पृथ्वीमण्डल में विचरने लगे। राजर्षि गांव, नगर, जंगल में (आश्रम, शून्यघरों में) विहार करते हुए पुण्डरीकिणी नगरी में पधारे। वहाँ देवों ने आश्चर्यकारक सर्वश्रेष्ठ समवसरण की रचना की। उसमें वज्रसेन तीर्थंकर विराजमान हुए। उसी समय भगवान् का आगमन जानकर वज्रनाभचक्रवर्ती अपने भाइयों के साथ प्रभु को वन्दन-स्तुति करने आया और उचित स्थान पर बैठा। भगवान् ने संसार में जन्म, जरा और मृत्यु के महाभय को नाश करने का धर्मोपदेश दिया। देशना सुनकर चारों भाइयों सहित वज्रनाभ चक्रवर्ती ने दीक्षा स्वीकार की। वज्रनाभ स्वाध्याय-ध्यान में एकाग्रचित्त बना आराधना में दिन व्यतीत कर रहा था। बाहु और सुबाहु ग्यारह अंगों का अभ्यास कर शुभ मन से तपस्वी साधुओं की आहार-पानी आदि से सेवाभक्ति करते थे। पीठ और महापीठ- दोनों उत्कर, आदि आसन करते हुए स्वाध्याय ध्यान में लीन रहते। वज्रनाभमुनि बाहु और सुबाहु की निश्चल सेवा को देखकर उनकी प्रशंसा करते। इससे पीठ और महापीठ ने सोचा कि जो विनयवान् होते हैं, उनकी प्रशंसा होती है, स्वाध्याय करनेवालों की प्रशंसा नहीं होती है। इस प्रकार के कुविकल्पों को आलोचना करते समय गुरु से नहीं कहा। इस तरह दीर्घकाल तक विशुद्ध आराधना करते हुए भी दोनों ने स्त्रीत्व-नामकर्म का बन्ध किया। फिर आयुष्य पूर्ण होने पर वज्रनाभ का जीव भरतक्षेत्र में नाभीकुलकर के पुत्र ऋषभदेव भगवान् बना। बाहु का जीव ऋषभदेव का प्रथम पुत्र भरत नाम से चक्रवर्ती बना और सुबाहु बाहुबली नामक अति बलिष्ठ दूसरा पुत्र हुआ। पीठ और महापीठ- दोनों ऋषभदेव की ब्राह्मी और सुन्दरी पुत्रियाँ हुईं। इस प्रकार आलोचना नहीं करने पर मायाशल्य का दोष अशुभ और स्त्रीनामकर्म के बन्ध का कारण होता है, इसलिए मायाशल्य का त्याग करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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