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456/ साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
की दृष्टि उस पर पड़ी। इससे राजा विचारने लगा कि यह रम्भा है या पातालकन्या। इस प्रकार चिन्तन कर राजा एक क्षण खड़ा रहा। जैसे- दुष्ट अश्व लगाम से काबू में आता है, वैसे ही अपने चक्षु को लज्जारूपी लगाम से अच्छी तरह घुमाकर वह मुश्किल से अपने महल को पहुँचा। फिर राजा का अंग-अंग कामवासना से पीड़ित होने लगा। उसी समय वहाँ सेनापति आया। राजा ने उससे पूछा कि उसके घर के ऊपर खड़ी स्त्री कौन थी? उसने कहा- “हे देव! सार्थवाह की कन्या से आपने विवाह नहीं किया, वही कन्या अब मेरी पत्नी है।" 'अरे! निर्दोष होने पर भी उसे दूषित बताकर उन पापी पुरुषों ने मुझे ठगा है'- इस प्रकार चिन्तन करता हुआ कामासक्त राजा कामाग्नि से दुःसह दुःख को प्राप्त हुआ। राजा के दुःख को जानकर सेनापति ने कहा- "हे राजन्! कृपा कर मेरी पत्नी को आप स्वीकार कर लीजिए।" राजा ने कहा- “हे भद्र! ऐसे अकार्य के लिए पुनः कभी मुझे मत कहना। यह नरकरूपी नगर का द्वार है।" तब सेनापति ने कहा- "हे देव! यदि परदारा होने से आप उसे स्वीकार नहीं करते हो, तो मैं आपके महल में नाचनेवाली वेश्या के रूप में उसे दूँ?" राजा ने कहा-"मरणान्त में भी मैं ऐसा अकार्य नहीं करूगाँ, अतः, हे सेनापति! अब तुम्हारा ज्यादा बोलना बन्द करो।" राजा को नमस्कार कर सेनापति घर लौट गया।
राजा उस रूपसी को देखने के कारण कामरूपी तीव्र अग्नि में जलने लगा और राजकार्यों को छोड़कर हृदय में तीव्र आघात लगने से आर्तध्यान के वश में होकर मरने के बाद वह तिर्यच में उत्पन्न हुआ। इस कथा को सुनकर साधक को चक्षुरेन्द्रिय के दोष से बचना चाहिए।
संवेगरंगशाला में वर्णित प्रस्तुत कथा का मूल स्रोत देखने का हमने प्रयास किया, किन्तु चूर्णिकाल तक इस कथा का मूल स्रोत हमें ज्ञात नहीं हुआ। सम्भावना यह हो सकती है कि यह कथा किसी जैनेतर स्रोत से ग्रहण की गई हो और आचार्यश्री ने उसे अपने ढंग से विषय के अनुरूप परिमार्जित करके लिखा
हो।
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