Book Title: Jain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Author(s): Priyadivyanjanashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 466
________________ 428 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री का दान देकर जितने पुण्य का बन्ध करता है, उससे अधिक पुण्य का बन्ध मांस का त्याग करनेवाला करता है। मांस का भक्षण नरक का एक कारण है, यह अपवित्र, अनुचित तथा सर्वथा त्याग करने योग्य है। मांस अभक्ष्य है, अतः इसका सर्वथा परित्याग कर देना चाहिए। कण्डरीक की कथा ऐन्द्रिक-विषयों का सेवन निश्चय से महाशल्य है, परलोक बिगाड़नेवाला महाशत्रु है। यह महाव्याधियों और दरिद्रता का हेतु है। जैसे- हृदय में चुभा हुआ शल्य प्राणियों को दुःखी करता है, वैसे ही हृदय में विषय-सेवन का विचार भी जीव को दुःखी करता है। विषयासक्त जीव वचनों को भी भूल जाता है। इस प्रकार आराधकों को विषयों के अल्पसुख को छोड़कर प्रशमरस के अपरिमित सुख का भोग करना चाहिए। इस सन्दर्भ में संवेगरंगशाला में कण्डरीक की निम्न कथा उपलब्ध है:-804 पुण्डरीकिणी नगरी में पुण्डरीक नामक राजा राज्य करता था। उसे जैन-धर्म पर दृढ़ अनुराग था, इससे संसार के विषयसुख को किंपाकफल के समान जानकर उसको वैराग्य उत्पन्न हुआ। राजा ने दीक्षा लेने की इच्छा से अपने छोटे भाई कण्डरीक को बुलाकर कहा- “हे भाई! अब तू इन राज्य-सुखों का भोग कर और मैं संसार के विषय-सुखों को छोड़कर दीक्षा स्वीकार करता हूँ।" कण्डरीक ने कहा- “हे महाभाग! विषयसुख यदि दुर्गति का मूल है, तो मैं भी दीक्षा स्वीकार करूंगा, मुझे राज्य से क्या प्रयोजन हैं?" राजा ने उसे विभिन्न प्रकार से समझाकर रोकने की कोशिश की, किन्तु उसने आचार्य के पास जाकर दीक्षा ले ली। अन्य नगरों में विचरते हुए रूक्ष आहार ग्रहण करने से कण्डरीक मुनि के शरीर में व्याधि उत्पन्न हुई। एक दिन वे पुण्डरीकिणी नगरी में पहुँचे। राजा ने वैद्य से औषधोपचार करवाकर मुनि की सेवा की। इससे मुनि का शरीर पुनः स्वस्थ हुआ, लेकिन मुनि रसलोलुपता के कारण अन्यत्र विहार करने के लिए निरुत्साही हुआ। राजा अपनी मधुर वाणी से उन्हें उत्साही करते हुए बोला- "हे महाशय! आप धन्य हो! तप के द्वारा कृशकाय होने पर भी आपको अपने शरीर पर अल्पमात्र भी आसक्ति नहीं है। आपने अप्रतिबद्ध विहार किया है, इसलिए आप मेरे द्वारा विनती करने पर भी नहीं रुक रहे हो?" 804 संवेगरंगशाला, गाथा ७२३१-७२६१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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