Book Title: Jain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Author(s): Priyadivyanjanashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

Previous | Next

Page 485
________________ सुलस और शिवकुमार की कथा जगत् के सम्पूर्ण पदार्थों से स्वयं को भिन्न समझना और इस भिन्नता का पुनः पुनः विचार करना ही अन्यत्वभावना है। यह शरीर आत्मा से भिन्न है । स्वजन तथा भौतिक पदार्थ भी हमसे अन्य हैं। व्यक्ति को सदैव यह विचार करना चाहिए कि कोई किसी का स्वजन नहीं है। अनन्त अतीतकाल में यह जीव, अनन्त प्राणियों का स्वजन या परिजन बना था। इस सन्दर्भ में संवेगरंगशाला में सुलस एवं शिवकुमार की निम्न कथा वर्णित है:- 814 जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 447 दशार्णपुर नामक नगर में सुलस और शिवकुमार नामक दो भाई रहते थे। सुलस प्रकृति से क्रूरकर्मी था तथा शिवकुमार हलुकर्मी, अर्थात् दयालु था। शिवकुमार अपने छोटे भाई को विविध दृष्टान्तों एवं युक्तियों से समझाकर धर्म में जोड़ने की कोशिश करता रहा, फिर भी सुलस जैनधर्म में श्रद्धावान् नहीं बना। शिवकुमार जिनेश्वरकथित धर्म को स्वीकार कर साधु-सेवा, आदि कार्य करता था । एक दिन स्नेहवश शिवकुमार ने अपने भाई सुलस से कहा - "हे भाई! तू अयोग्य कर्मों को क्यों करता है? अंजलि के जल की तरह यह आयुष्य प्रतिक्षण क्षीण हो रही है, शरदऋतु के बादल की शोभा सदृश्य इस आयु को नष्ट होते हुए तू क्यों नहीं देखता है? क्षण भर में शरीर की सुन्दरता का नाश होते हुए तू क्यों नहीं देखता है? तू क्यों इन पापकर्मों का आचरण कर रहा है और दान, शील, तप और धर्म में अल्प भी पुरुषार्थ नहीं कर रहा है। " तब सुलस ने उससे कहा - "अरे भोले भाई! धूतों के द्वारा तुम ठगे गए हो। देह-दुःख के कारण तप के द्वारा अपनी काया को तपा रहे हो। पुरुषार्थ से प्राप्त किए गए धन को तीर्थों आदि में दान कर देते हो और जीवों के रक्षण के लिए पृथ्वी पर भी वैर नहीं रखते हो। ऐसी शिक्षा से क्या प्रयोजन है, जिससे अल्प भी लाभ न हो, अतः कौन प्रत्यक्ष सुख को छोड़कर आत्मसुख की बात करे ।" इस तरह सुलस को धर्म की हँसी उड़ाते हुए देखकर शिवकुमार को संवेग, अर्थात् वैराग्यभाव उत्पन्न हुआ। इससे सद्गुरु के पास जाकर उसने दीक्षा स्वीकार कर ली। लम्बी अवधि तक उग्र तपस्या एवं साधना करके अन्त में मरकर शिवकुमार मुनि अच्युत देवलोक में देव बना। सुलस अपने पापों के द्वारा अशुभ कर्म का बन्ध कर अन्त में मरकर तीसरी नरक में नारकी का जीव बना। वहाँ उसे परमाधामी देवों द्वारा अत्यन्त 814 संवेगरंगशाला, गाथा ८६८७-८७१३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540