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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 437
चारुदत्त की कथा सर्पो में मणि, हाथियों में दाँत और चमरी गाय में उसकी पूंछ का समूह (चामर) सारभूत होते हैं, परन्तु मनुष्य के शरीर में कोई एक अंग भी सारभूत नहीं है। गाय के गोबर, मूत्र और दूध में तथा सिंह के चमड़े में पवित्रता दिखाई देती है, लेकिन मनुष्य-देह मे अल्प भी पवित्रता दिखाई नही देती है। जिस प्रकार सरोवर में पत्थर फेंकने से कीचड़ उछलता है, उसी तरह कामिनी के रंग से प्रशान्त मन भी उद्बोलत हो जाता है। मित्रता के दोष से चारुदत्त ने आपत्ति प्राप्त की तथा वृद्ध की सेवा करने से पुनः उन्नति को प्राप्त किया। इस प्रसंग में संवेगरंगशाला में चारुदत्त की निम्न कथा उपलब्ध है-808
___ चम्पानगरी में भानु नामक श्रावक रहता था। उसे सुभद्रा नामकी पत्नी और चारुदत्त नाम का एक पुत्र था। चारुदत्त युवावस्था को प्राप्त हुआ, फिर भी वह साधुओं की तरह निर्विकारी मनवाला ही था, इसलिए माता-पिता ने उसका मन बदलने के लिए दुर्व्यसनी मित्रों के साथ उसकी संगति करा दी। इस कारण उसमें इन्द्रिय-विषयों को भोगने की इच्छा जाग्रत हुई। कामासक्त बना चारुदत्त वसन्तसेना नामक वेश्या के घर बारह वर्ष तक रहा। चारुदत्त ने अपना सम्पूर्ण धन वेश्या को देकर समाप्त कर दिया, इस पर वेश्या ने उसे अपने घर से निकाल दिया। जब वह वापस अपने घर लौटा, तब वहाँ अपने माता-पिता की मृत्यु का समाचार सुनकर अति दुःखी हुआ। तत्पश्चात् व्यापार की इच्छा से पत्नी के आभूषण लेकर वह मामा के साथ अन्य नगर को चला गया। वहाँ से रूई खरीदकर उसे अन्यत्र बेचने गया। रास्ते में बीच जंगल में दावानल लगने से रूई जलकर राख हो गई। तब वह प्रियंगु नगर आया। वहाँ उसके पिता के मित्र ने उसे पुत्र की तरह रखा। एक दिन वह जहाज भरकर अन्य बन्दरगाह में गया। वहाँ उसने आठ करोड़ जितना धन प्राप्त किया। पुनः, अपने नगर लौटते समय उसका जहाज समुद्र में नष्ट हो गया। किसी तरह से उसे लकड़ी का एक तख्ता मिला। उसके सहारे वह राजपुर नगर में पहुँचा। वहाँ उसे एक त्रिदण्डी साधु मिला। साधु के द्वारा पूछे जाने पर उसने सत्य घटना सुनाई। त्रिदण्डी ने उसे धनाढ्य बनाने के लिए पर्वत पर स्थित कुए से रस लाने को कहा। चारुदत्त गहरे कुए में प्रवेश करके तुम्बे में रस लेने लगा, तब अन्दर से किसी ने उसे रोका, किन्तु सर्व परिस्थिति बताने पर उसने उसे तुम्बे में रस भरकर दिया। त्रिदण्डी द्वारा रस्सी से चारुदत्त को बाहर नहीं निकाल पाने पर क्रोधित होकर उसने रस
808 संवेगरंगशाला, गाथा ८०६५-८१४५.
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