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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 435
लगा। एक दिन मन्त्री ने युवराज से पूछा- "हे कुमार ! तुम दुर्बल क्यों होते जा रहे हो ?" अति आग्रहपूर्वक पूछने पर उसने एकान्त में मन्त्री को कारण बताया। तब मन्त्री ने कहा- “हे कुमार ! कोई नहीं जान सके, इस प्रकार से तुम उसे भौरें में छुपकर विषय-सुखों का भोग करो। तुम्हारे द्वारा इस प्रकार करने से लोग भी यही जानेंगे कि निश्चय से किसी ने इसका अपहरण किया है।" कामासक्त बने राजकुमार ने मन्त्री की बात स्वीकार कर उसी प्रकार आचरण किया। यह बात यव राजा को ज्ञात होने पर उन्हें अपार निर्वेद उत्पन्न हुआ और उन्होंने पुत्र को राज्य पर स्थापित कर स्वयं सद्गुरु के पास दीक्षा स्वीकार कर ली।
संयम लेकर यव राजर्षि का मन अध्ययन में नहीं लगता था। गुरुदेव द्वारा बार-बार कहने पर भी यव राजर्षि पढ़ने में विशेष उद्यम नहीं करते और पुत्र पर मोह होने से बार-बार नगरी में आते। एक समय उज्जैन की ओर आते हुए यव राजर्षि ने जौ के खेत की रक्षा में तत्पर खेत के मालिक को एक गधे से एक श्लोक के रूप में यह कहते हुए सुना
" अधावसि पथावसि ममं चेव निरिक्खिसि ।
लक्खि तो ते मए भाओ, जवं पत्थेसि गदहा।।"
अर्थात् सामने आता है, पीछे भागता है और मुझे देखता है, इसलिए हे गधे! मैं तेरे भाव को जानता हूँ कि तू जौ (जव) चाहता है। यव राजर्षि कौतूहलवश उस श्लोक को याद करके आगे चलने लगे। आगे एक स्थान पर कुछ बच्चे गिल्ली खेल रहे थे । एक लड़के ने गिल्ली जोर से फेंकी, जिससे वह गड्ढे में गिर गई। चारों तरफ खोज करने पर भी जब गिल्ली नहीं मिली, तब एक लड़के ने एक गड्ढे में गिल्ली को देखकर इस प्रकार कहा
" इओ गया, तीयो गया, मग्गिज्जंति न दीसई।
अहमेयं वियाणांसि, बिले पड़िया अडोलिया।"
अर्थात इधर गई कि उधर गई-इस प्रकार खोज करने पर भी नहीं मिली, परन्तु मैं इसे जानता हूँ कि गिल्ली गड्ढे में गिरी है।
इस श्लोक को भी मुनि ने याद कर लिया, फिर मुनि उज्जैन नगरी में पहुँचे और वहाँ एक कुम्भकार के घर ठहरे । वहाँ भी कुम्भकार ने भागते हुए चूहे को इस तरह श्लोक कहा
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