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436/ साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
सुकुमलया भद्दलया, रति हिडण्सीलया। दीह पिदस्थ बीहेहि नत्थि ते ममओ अयं।।
अर्थात् रात्रि में घूमने के स्वभाववाले हे सुकुमार भद्रक चूहे! तू चाहे सर्प से डरता हो, परन्तु मुझसे तुझे किसी प्रकार का भय नहीं है। इस श्लोक को भी यव राजर्षि ने याद कर लिया। राजर्षि ने तीनों श्लोकों को कण्ठस्थ कर लिया, फिर वे धर्म-साधना करने लगे।
यव राजर्षि के साथ दीर्घपृष्ठ मन्त्री का कुछ पूर्व वैर होने से उसने कुम्भकार के घर कुछ शस्त्र छिपाकर यव के पुत्र से कहा- “हे राजन! आपके पितामुनि आपको मारकर राज्य लेने आए हैं।" ऐसा कहकर उस स्थान पर छुपाए हुए शस्त्रों को दिखाया। राज्य-अपहरण एवं मौत के भय से राजा मन्त्री के साथ काली रात्रि में कुम्भकार के घर पहुँचा। उस समय किसी कारणवश मुनि ने प्रथम श्लोक का उच्चारण किया। राजा ने श्लोक सुनकर विचार किया कि निश्चय से इन्होंने मुझे जान लिया है। जब मुनि ने दूसरा श्लोक कहा तब उसे सुनकर राजा को आश्चर्य हुआ- अहो! ये बहन का वृत्तान्त भी जानते हैं। फिर मुनि ने तीसरे श्लोक का उच्चारण किया और उसे सुनकर राजा ने पितामुनि को अपना हितैषी जानकर मन्त्री को शत्रु माना। राजा को मन्त्री पर तीव्र क्रोध उत्पन्न हुआ और उसी तलवार से राजा ने उसका मस्तक काट दिया। अन्त में राजा ने अन्दर जाकर अपने पितामुनि को अपना सर्ववृत्तान्त कहा, जिसे सुनकर मुनि ने विचार किया कि अज्ञानी जीवों द्वारा कहे गए श्लोकों को याद करने से मेरे जीवन की रक्षा हो गई, तो जिनेश्वर परमात्मा द्वारा कथित वचनों का अध्ययन करने से वह कितना फलदायक होगा। ऐसा विचार कर वे अपने गुरु के पास गए और अपने अविनय की क्षमायाचना कर श्रुतज्ञान का अध्ययन करने लगे। इस तरह यव राजर्षि के प्राण एवं संयम-जीवन की रक्षा हुई।
प्रस्तुत कथा का सार यह है कि ज्ञानी पुरुष की सर्वत्र पूजा होती है और अज्ञानी पुरुष दर-दर की ठोकर खाता है। इस सम्बन्ध में संवेगरंगशाला में यव मुनि की कथा वर्णित है। प्रस्तुत कथा हमें बृहत्कल्पभाष्य (११५५) और बृहत्कल्पवृत्ति (पृ.३५६) में भी उपलब्ध होती है।
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