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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 439
स्वीकार कर अपने स्थान को चला गया। विद्याधर चारुदत्त को गुणवान् जानकर अपने साथ चम्पापुरी ले गए। वहाँ चारुदत्त ने विपुल सम्पत्ति प्राप्त की।
__इस तरह इस जगत् में दुष्ट और शिष्टजनों की संगति से उसी के अनुरूप फल मिलता है। इसे देखकर निर्मल गुणों से युक्त होकर वृद्धों की सेवा करना चाहिए। व्यक्ति चाहे वयोवृद्ध हो, ज्ञानवान् हो, प्रमाणिक हो, अधिक क्या लोकमान्य मुनि एवं तपस्वी भी हो, फिर भी स्त्रियों के संसर्ग से वह अल्पकाल में दोषों को प्राप्त करता है, फिर युवान, अल्पज्ञ, अति स्वछन्दाचारी, मर्ख व्यक्ति स्त्री के संसर्ग से व्रतों से भ्रष्ट हो जाए, तो इसमें क्या आश्चर्य है? अतः इसे समझकर जो पुरुष जहर के समान समझकर स्त्री के संसर्ग को सर्वथा त्याग देता है, वही निश्चल ब्रह्मचर्य का भी पालन कर सकता है।
संवेगरंगशाला में इस कथा के माध्यम से यह बताया गया है कि वृद्ध, बाल, ग्लान, आदि की सेवा-शुश्रूषा से जहाँ व्यक्ति जीवन में उत्कर्ष एवं प्रतिष्ठा को प्राप्त करता है, वहीं दुर्जनों की संगति से सज्जन पुरुष का मन एवं इन्द्रियाँ भी चंचल बन जाती हैं और वह स्वेच्छाचारी बनकर विषय-भोग सम्बन्धी दोषों से अपकर्ष को प्राप्त करता है। इस सम्बन्ध में संवेगरंगशाला में चारुदत्त की कथा उपलब्ध होती है। जिनदत्तसूरि द्वारा प्रतिपादित यह कथानक हमें आचारांगचूर्णि (पृ. ५०) तथा सूत्रकृतांगवृत्ति (पृ. १६६) में भी उपलब्ध होता है।
धन सेठ की पुत्रवधुओं की कथा महाव्रतों का दृढ़तापूर्वक पालन करने से अनेक जीव इस संसार-समुद्र से पार हुए हैं और हो रहे हैं और होंगे। क्योंकि पुण्यात्माओं को ही ये महाव्रत प्राप्त होते हैं और उनको ही उनमें अतिदृढ़ता आती हैं, इसीलिए अतिदुर्लभ पंच महाव्रतरूपी रत्नों को प्राप्तकर उन्हें फेंक नहीं देना चाहिए। इस सम्बन्ध में संवेगरंगशाला में धन सेठ की पुत्रवधुओं की निम्न कथा वर्णित है :-809
राजगृही नगरी में धन नामक सेठ रहता था। उसके धनपाल, आदि चार पुत्र और उनकी चार पुत्रवधुएँ थीं। उम्र से परिपक्व हो जाने पर सेठजी को चिन्ता हुई कि घर का कार्यभार किस पुत्रवधू को सौंपूँ। तब सेठ ने पुत्रवधुओं की परीक्षा करने का विचार किया। एक दिन सेठ ने अपने सम्बन्धीजनों के समक्ष अपनी चारों पुत्रवधुओं को पाँच-पाँच धान्य के दाने देकर इस प्रकार कहा- “इन्हें
809 संवेगरंगशाला, गाथा ६२२३-८२४५.
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