Book Title: Jain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Author(s): Priyadivyanjanashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 457
________________ दृढप्रहारी की कथा 'मैं ही उग्र तपस्वी हूँ'- इस तरह से किया गया मद या अहंकार उग्र तप को भी निष्फल कर देता है, इसलिए तप - मद को बांस से उत्पन्न हुई अग्नि के समान कहा गया है, जो स्वयं को ही जला देती है। इस सन्दर्भ में संवेगरंगशाला में दृढ़प्रहारी की निम्न कथा का उल्लेख मिलता है - 799 एक ब्राह्मण था, उसने अपने अविनीत पुत्र को घर से निकाल दिया, जिससे वह घूमते-घूमते किसी चोर की बस्ती में पहुँच गया। वहाँ वह पल्लीपति के साथ रहने लगा तथा उसने अपने बुद्धिबल से तलवार, आदि शस्त्र चलाने की कला सीखी। वह जीवों पर निर्दयतापूर्वक कठोर प्रहार करता था, जिससे हर्षित होकर पल्लीपति ने उसका नाम दृढ़प्रहारी रखा। कुछ समय पश्चात् ही पल्लीपति का देहान्त हो गया, अतः उसकी जगह दृढ़प्रहारी को पल्लीपति पद पर स्थापित किया गया। दृढ़प्रहारी निर्भयतापूर्वक शहर और गांव को लूटकर पल्ली के लोगों का पूर्व के पल्लीपति की तरह पालन करने लगा। जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 419 एक दिन वे सब धन लूटने के लिए कुशस्थल गांव गए। वहाँ देवशर्मा नामक अति दरिद्र ब्राह्मण रहता था। उसी दिन उसके पुत्र ने खीर खाने की जिद्द की। उस ब्राह्मण ने अत्यन्त कठिनाई से चावल और दूध भीख में मांगकर पत्नी को खीर बनाने के लिए दिए। इधर खीर तैयार हो रही थी और उधर वह ब्राह्मण पूजा करने हेतु नदी किनारे गया। उस समय चोर उसके घर में घुसे और तैयार खीर देखकर भूख से पीड़ित एक चोर ने उसे खा ली। खीर की चोरी होते देखकर ब्राह्मण का बालक दौड़ता हुआ अपने पिता देवशर्मा के पास गया और उन्हें वह घटना बताई। इससे क्रोधित हुआ देवशर्मा तुरन्त घर आया और कहने लगा- “ अरे पापी! म्लेच्छ ! अब मुझसे बचकर कहाँ जाएगा।" ऐसा कहते हुए वह चोरों के साथ लड़ने लगा। तब उसकी गर्भवती पत्नी ने बीच में आकर उन सबको लड़ने से रोका, लेकिन ब्राह्मण रुका नहीं। उस ब्राह्मण द्वारा अपनी पल्ली के लोगों को मारते हुए देखकर दृढ़प्रहारी अत्यन्त क्रोध के वशीभूत हुआ और तुरन्त उसने म्यान से तीक्ष्ण तलवार खींचकर ब्राह्मण और उसकी पत्नी को काट दिया । तलवार के वार से कटकर तड़पते हुए गर्भ के दो टुकड़ों को देखकर दृढ़प्रहारी को तीव्र पश्चाताप हुआ और वह विचार करने लगा - "हा! हा! यह अत्यन्त दुःखद है। अहो ! मैंने कैसा भयंकर पाप कर दिया है। इस पाप से मैं 799 संवेगरंगशाला, गाथा ६८५७-६८८८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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