Book Title: Jain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Author(s): Priyadivyanjanashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 453
________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 415 बड़े-बड़े मल्लों को भी जीता और इसलिए उसका नाम मल्लदेव प्रसिद्ध हुआ। राजा ने मल्लदेव को राजा बनने योग्य जानकर उसका राज्याभिषेक किया और स्वयं ने तापसी दीक्षा स्वीकार कर ली। मल्लदेव अपने भुजबल से सीमा के सभी राजाओं को जीतकर प्रजा का पालन करने लगा। एक दिन उसने उद्घोषणा करवाई कि जो व्यक्ति उसका प्रतिमल्ल बतलाएगा, उसे एक लाख सोने की मोहरें दी जाएगी। उस घोषणा को सुनकर एक परदेशी पुरुष ने राजा के पास आकर कहा- “हे राजन्! मैंने पूर्व-दिशा में वज्रधर नामक राजा को देखा है, जो अपने प्रकृष्ट बल से “त्रैलोक्य वीर" कहलाता है। उसके भुजबल की बात तो अलग ही है। उसके सहज हस्तप्रहारमात्र से निरंकुश हाथी भी वश में होकर सही मार्ग पर चलने लग जाता है।" ऐसा सुनकर राजा ने उसे एक लाख सोने की मोहरें देकर विदा किया और अपने दूत से कहा- “तुम जाकर त्रैलोक्यवीर नामक उस राजा से कहना कि किसी ने आपकी ‘त्रैलोक्यवीर' के रूप में स्तुति की है, यदि आप वस्तुतः त्रैलोक्यवीर हैं, तो हमारे राजा से युद्ध करें।" दूत के द्वारा वैसा ही कहने पर वज्रधर राजा अपनी भृकुटी चढ़ाकर कहने लगा- “अरे! तेरा राजा कौन है? उसका नाम भी मैं नहीं जानता। मेरी युद्धरूपी अग्निशिखा में उसकी दशा पतंगे के समान होगी।" वज्रधर के ये वचन उस दूत ने आकर मल्लदेव राजा को उसी प्रकार कह दिए। मल्लदेव ने युद्ध हेतु वहाँ से तुरन्त प्रस्थान किया। उसका आगमन जानकर वज्रधर भी शीघ्र सामने आया। दोनों में परस्पर युद्ध हुआ। अपने अन्य सभी सुभटों का विनाश देखकर दोनों ने परस्पर युद्ध करने का निश्चय किया। उन दोनों में मल्लयुद्ध प्रारम्भ हुआ। अपने प्रचण्ड भुजबल से वज्रधर ने मल्लदेव को शीघ्र ही हरा दिया। इस तरह मल्लदेव बलमद के कारण मृत्यु को प्राप्त हुआ। सामान्य राजा बल में श्रेष्ठ होता है, किन्तु बलदेव उनसे भी श्रेष्ठ होता है और बलदेवों से भी अधिक श्रेष्ठ चक्रवर्ती होता है। चक्रवर्ती से भी तीर्थकर प्रभु अनन्तबली होते हैं। इस तरह उत्तरोत्तर एक दूसरे से बल में श्रेष्ठ होते हैं, फिर भी अज्ञजन बल का मिथ्याभिमान करते हैं। मल्लदेव राजा की कथा का मूल स्रोत देखने का हमने प्रयास किया, किन्तु अन्य जैन ग्रन्थों में इस कथा का मूल स्रोत हमें ज्ञात नहीं हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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