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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 377
जन्मान्तर में दरिद्रता, भीरुता और स्वजनों के वियोग, इत्यादि को प्राप्त करता है, इसलिए परधन-इच्छा का भी सर्वथा त्याग करना चाहिए।
संवेगरंगशाला में जो श्रावकपुत्र की कथा दी गई है, उसका मूल स्रोत हमें ज्ञात नहीं हुआ। सम्भावना यह भी हो सकती है कि यह कथा किसी जैनेत्तर स्रोत से ग्रहण की गई हो और आचार्यश्री ने उसे अपने ढंग से विषय के अनुरूप परिमार्जित करके लिखा हो।
तीन सखियों की कथा द्रव्य से देव, मनुष्य और तिर्यंच सम्बन्धी, साथ ही राग-भाव और द्वेष-भाव से मैथुन-दोष को सर्व कष्टों का कारण जानकर मन में भी इच्छा नहीं करना चाहिए। मैथुन से प्रकट हुए पाप के द्वारा जीव अनन्तकाल तक संसार में परिभ्रमण करता है। संवेगरंगशाला में इस चौथे पापस्थानक में प्रवृत्ति के दोष और निवृत्ति के गुणों के विषय में तीन सखियों और उनके पुत्रों की निम्न कथा उपलब्ध है-779
गिरिनगर में तीन धनवान सेठों की तीन पुत्रियाँ सखियों के रूप में रहती थीं। उन तीनों का विवाह भी उसी नगर में हुआ। योग्य समय तीनों ने एक-एक पुत्र को जन्म दिया। किसी एक दिन नगर के पास उद्यान में तीनों सखियाँ क्रीड़ा कर रही थीं। उसी समय कुछ चोर वहाँ आए और उन तीनों को पकड़कर पारस नामक देश चले गए। वहाँ उन्होंने उन तीनों को एक वेश्या के पास बेच दिया। वेश्या ने उन तीनों को अपनी सम्पूर्ण कलाएँ सिखाई। तत्पश्चात् श्रेष्ठियों एवं व्यापारियों आदि के पुत्रों के उपभोग के लिए उन सखियों को नियुक्त कर दिया। इस तरह उन्होंने लोगों से प्रसिद्धि प्राप्त की। ..... तीनों सखियों के वे तीनों पुत्र यौवनवय को प्राप्त हुए। अपनी माताओं के समान तीनों पुत्रों में भी परस्पर मित्रवत् प्रीति थी। उनमें से एक मित्र श्रावकपुत्र था, जो बारह अणुव्रतधारी एवं स्वदारा-संतोषी था। दूसरे दोनों मित्र मिथ्यादृष्टि थे। किसी समय वे धन कमाने पारस बन्दरगाह में आए। भवितव्यतावश वे तीनों उन्हीं वेश्याओं के कोठे पर गए। श्रावकपुत्र को निर्विकारी मनवाला जानकर एक वेश्या ने उससे पूछा- “हे भंद्र! तुम कहाँ से आए हो और ये दोनों तुम्हारे क्या होते हैं?" उसने कहा- “हे भद्रे! 'हम गिरिनगर से आए हैं।
179 संवेगरंगशाला, गाथा ५८४२-५६६३.
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