Book Title: Jain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Author(s): Priyadivyanjanashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 418
________________ 380 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री मजदूरों के पास इतनी स्वर्णमुद्राएँ देखकर उन्हें पकड़ लिया और राजा को सौंप दिया। राजा ने सिक्कों को देखकर उनसे पूछा- "तुम्हें ये सिक्के कहाँ से मिले और तुमने उन्हें किसे बेचा?" उन्होंने कहा- “राजन्! हमने दो सिक्के जिनदास को तथा शेष नन्द व्यापारी को बेच दिए हैं।" इस तरह सर्ववृत्तान्त सुनकर राजा ने जिनदास को बुलाकर पूछा। जिनदास ने सारी घटना यथावत् कह सुनाई। इससे राजा ने उसका सम्मान किया तथा उसे घर जाने दिया। इधर नन्द सेठ ने अपनी दुकान पर आकर अपने पुत्र से पूछा- "हे पुत्र! तूने उन सिक्कों को खरीदा, अथवा नहीं?" पुत्र ने कहा- “पिताजी! अत्यधिक मूल्य के होने से मैंने उन्हें नहीं लिए।" इससे नन्दसेठ अपनी छाती पीटने लगा और बोला- "हाय! मैं लुट गया। मेरे इन पैरों का ही दोष है, जिनके द्वारा मैं परघर भोजन करने गया।" इसके साथ ही वह अपने पैरों को तोड़ने लगा। तत्पश्चात् राजा ने उसको बुलवाकर राजसेवक को उसका वध करने की आज्ञा दी और उसका सर्वधन ले लेने को कहा। इस तरह तृष्णा-अविरति के कारण जीव पापकार्य करता है और दुःखी होता है, इसलिए मन को परिग्रह में तनिक भी नहीं जोड़ना चाहिए। यह परिग्रह देखते-देखते ही क्षण में नष्ट होनेवाला है, इसलिए धीर पुरुष इसकी इच्छा नहीं करता है। जैसे- इस जगत् की वायु को थैले में भरा नहीं जा सकता है, वैसे ही आत्मा को भी धन से कभी पूर्ण सन्तुष्ट नहीं किया जा सकता है, इसलिए इच्छा का त्यागकर सन्तोष धारण करना ही सर्वोत्तम है। सन्तोषी निश्चय ही सुखों को प्राप्त करता है और असंतोषी को अनेक दुःख प्राप्त होते हैं। इस प्रकार परिग्रह में आसक्ति रखना उचित नहीं है। संवेगरंगशाला की इस कथा में परिग्रह को मूर्छारूपी लताओं का मण्डप कहा गया है। इसमें बताया गया है कि पूर्व पुण्य से रहित जो मूढ़ात्मा मात्र धन की इच्छा करता है, उसका मनोरथ कभी पूर्ण नहीं होता। इस विषय पर वर्णित लोभानन्दी और जिनदास की यह कथा हमें आवश्यकचूर्णि (भाग १, पृ. ५२८) में भी मिलती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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