________________
388 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
हो गया था। एक दिन वह ब्राह्मणी एक विद्वान् ब्राह्मण को देखकर रोने लगी। पुत्र द्वारा रोने का कारण पूछने पर उस ब्राह्मणी ने कहा- "हे पुत्र! अब जिन्दगी में रोने के सिवाय बचा भी क्या है?" देख, उस विद्वान ब्राह्मण की तरह तेरे पिता के पास भी बहुत सम्पत्ति थी, परन्तु तेरे जन्म लेने के साथ ही सारी सम्पत्ति समाप्त हो गई।" कपिल ने कहा- "माँ पिताजी ने इतनी सम्पत्ति कहाँ से प्राप्त की थी?" माँ ने कहा- "बेटा! तेरे पिताजी वेदों के विद्वान् पण्डित थे। उन्होंने अपनी विद्वत्ता के द्वारा ही बहुत-सा धन अर्जित किया था।" ऐसा सुनते ही कपिल ने भी वेदों का अभ्यास करने का निर्णय किया और इस हेतु वह वहाँ से निकलकर श्रावस्ती नगरी पहुंचा।
कपिल इन्द्रदत्त नामक उपाध्याय के पास पहुँचा। वहाँ उसने अध्ययन करना प्रारम्भ किया, किन्तु वह भोजन धन नामक सेठ के यहाँ करता था। सेठ की दासी कपिल के भोजन का ध्यान रखती थी। इस तरह वह उपाध्याय और धन सेठ की कृपा से वेदों का अध्ययन करने लगा। दासी उसे सदैव प्रेमपूर्वक भोजन कराती एवं उससे मधुरवाणी में वार्तालाप करती। इससे आपस में दोनों का प्रेम बढ़ने लगा।
एक दिन उस दासी ने कपिल से कहा-"कल नगर में उत्सव होनेवाला है, वहाँ सभी स्त्रियाँ सुन्दर वस्त्र एवं अलंकारों से सुसज्जित होकर आएँगी, इसलिए आप भी मेरे लिए सुन्दर वस्त्र एवं अलंकार ला दो।" कपिल कहने लगा"प्रिये! मैं तुम्हें वस्त्रालंकार कहाँ से लाकर दूँ। मेरे पास तो कुछ भी नहीं है।" दासी ने कहा- "हमारे नगर में जो ब्राह्मण अपने आशीर्वचनों से राजा को सबसे पहले जाग्रत करता है, उसे राजा दो माशा स्वर्णदान देकर उसका सत्कार करते हैं, इसलिए तुम भी वहाँ जाओ और धन ले आओ।"
कपिल दासी के कहने पर रात्रि में ही राजमार्ग पर चल दिया। राजपुरुषों ने उसे रात्रि में राजमार्ग पर जाते देखा, तो उसे चोर समझकर पकड़ लिया और राजा को सौंप दिया। प्रातःकाल राजा ने उस चोर से पूछा- “हे भद्र! तू यहाँ किसलिए आया है?" तब कपिल ने राजा को अपना सर्ववृत्तान्त बताया। इस पर राजा ने उसे जितना धन चाहिए, उतना मांगने के लिए कहा। कपिल एकान्त में जाकर विचार करने लगा- 'क्या मैं बीस मुद्रा मांग लूँ?' फिर सोचने लगा- 'नहीं। इतने से तो आभूषण भी नहीं आएंगे। तो फिर सौ मुद्रा मांग लेता हूँ। नहीं, इससे भी कुछ नहीं होगा।' लोभी मन लम्बी-लम्बी उड़ानें भरने लगा। सौ से हजार, हजार से लाख और करोड़ तक मन पहुँच गया। धन की इच्छा को उत्तरोत्तर बढ़ता देख कपिल विचार करने लगा कि जैसे-जैसे जीव को लाभ होता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org