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382/ साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
इधर मन द्वारा युद्ध करते हुए राजर्षि के सर्व शस्त्र खत्म हो गए, अतः मुकुट द्वारा शत्रु को मारने की इच्छा से राजर्षि ने अपने मस्तक को हाथ लगाया
और लोच किए हुए मस्तक का स्पर्श होते ही उनकी चेतना जाग्रत हुई। 'अरे! मैं श्रमण हूँ, और इस तरह युद्ध कर रहा हूँ'- इस प्रकार तीव्र विवाद करते राजर्षि ने शुक्लध्यान को प्राप्त किया, जिससे उन्हें उसी समय केवलज्ञान प्रकट हुआ। तत्काल देवों ने दुन्दुभी-नाद किया। राजा श्रेणिक ने भगवान् से पूछा- "हे भगवन्त्। यह दिव्य ध्वनि किस कारण से हो रही है?" भगवान् ने कहा"प्रसन्नचन्द्र राजर्षि को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है, इसलिए देवता केवल महोत्सव मना रहे हैं।" आश्चर्यपूर्वक राजा पुनः प्रभु से पूछने लगा- “हे नाथ! आपने उनके सम्बन्ध में पहले तो नरक में उत्पन्न होने की बात कही थी और अब केवलज्ञान होने की सूचना दे रहे हैं, इसका क्या कारण है?" उस समय प्रभु ने श्रेणिक राजा को सर्व वृत्तान्त यथावत् कहा- "यह सब मनोभावों का खेल है। उस समय वे तीव्र आक्रोश में थे और अब पूर्णतः शान्त। क्रोध अनर्थों का मूल है, क्रोधी व्यक्ति हिंसा करता है, मृषा भाषण करता है, अदत्त ग्रहण करता है, ब्रह्मचर्यव्रत को भंग करता है तथा परिग्रह-संग्रह करता है, इसलिए मुनि को सदैव ही क्षमा से क्रोध को पराजित कर देना चाहिए।" इस प्रसंग में संवेगरंगशाला में प्रसन्नचन्द्र राजर्षि का दृष्टान्त दिया गया है। प्रस्तुत कथानक हमें आवश्यकचूर्णि (भाग १, ४५६), निशीथसूत्रचूर्णि (भाग ४ पृ. ६८) में भी उपलब्ध होता है।
बाहुबली का दृष्टान्त मान से विनय गुण का नाश होता है। मान को स्तम्भ की उपमा देते हुए कहा गया है कि स्तम्भ की तरह अभिमानी व्यक्ति कभी झुकता नही है। जैसे ज्वर के शान्त हो जाने पर पथ्य का सेवन करने से शरीर स्वस्थ होता है, वैसे ही मानरूपी ज्वर के शान्त होने पर आराधनारूपी पथ्य के सेवन से आत्मा स्वस्थ हो जाती है। मान के सन्दर्भ में संवेगरंशाला में बाहुबली की निम्न कथा वर्णित
है-782
तक्षशिला नगर में भगवान् ऋषभदेव का पुत्र बाहुबली नामक राजा राज्य करता था। उससे छोटे अट्ठानवें भाइयों ने राज्य का त्यागकर ऋषभदेव भगवान् के पास दीक्षा स्वीकार कर ली थी। तत्पश्चात् ज्येष्ठ भ्राता भरत चक्रवर्ती ने बाहुबली से कहा- "तुम अपने स्वतन्त्र राज्य को मेरे अधीन कर मेरी आज्ञा का पालन
782 संवेगरंगशाला, गाथा ५६७२-५६६४.
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