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374/ साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
वसुराजा और नारद की कथा मृषावचन सज्जनता को नष्ट करने में दावानल के समान हैं। जैसे जहर-मिश्रित भोजन प्राणों का विनाशक है, जरा यौवन का घातक है, वैसे ही असत्य वचन भी निश्चय ही सर्वधर्म का विनाशक है, क्योंकि एक बार भी असत्य बोलना अनेक बार बोले हुए सत्य वचनों का नाश करना होता है। इस तरह सत्य-असत्य के गुण-दोषों को जानकर असत्य वचन का त्याग कर सत्य वचन का ही प्रयोग करें। इस सन्दर्भ में संवेगरंगशाला में वसुराजा और नारद की कथा वर्णित है। वह कथा इस प्रकार है -777
शक्तिमति नाम के नगर में अभिचन्द्र नाम का राजा एवं वसु नाम का उसका पुत्र रहता था। अपने पुत्र को वेद का अभ्यास कराने के लिए राजा ने उसे कदम्बक उपाध्याय को सौंपा। उपाध्याय का एक पुत्र पर्वत और नारद- इन दोनों के साथ राजपुत्र अभिचन्द्र भी वेद का अभ्यास करने लगा। एक दिन कोई महामुनि आकाशमार्ग से जा रहे थे। धरती पर तीनों को पढ़ते देखकर मुनि ने कहा- “ये जो तीनों वेद पढ़ रहे हैं, उनमें से दो नीचगति में तथा एक उर्ध्वगति में जानेवाला है। इसे सुनकर उपाध्याय ने विचार किया- 'ऐसे शिष्यों को अभ्यास कराना निरर्थक है।' इस प्रकार उपाध्याय उनसे वैराग्य प्राप्त कर दीक्षित हो गए और उन्होंने मोक्ष-पद को प्राप्त किया।
राजा ने भी अपने पुत्र का राज्याभिषेक कर संयम ग्रहण कर लिया। एकदा वसु राजा को एक पुरुष ने स्फटिकरत्न की शिला लाकर दी। राजा ने सिंहासन बनाने के लिए उस शिला को कलाकारों को सौंपा। जब उस शिला से बने सिंहासन को सभा मण्डप में स्थापित किया गया तब उस पर बैठा हुआ राजा ऐसा दिखाई देता था, मानों वह हवा में लटक रहा हो। नगरजनों को विस्मय होने लगा तथा अन्य राजाओं में वसुराजा की यह प्रसिद्धि फैल गई कि वसु राजा सत्य के प्रभाव से अन्तरिक्ष में बैठता है।
किसी एक समय नारद पूर्वस्नेह से अपने गुरुपुत्र पर्वत के पास आया, पर्वत ने अपने मित्र का आदर-सत्कार किया और दोनों परस्पर चर्चा करने लगे। प्रसंगोपात अतिमूढ़ पर्वत ने यज्ञ के अधिकार सम्बन्धी व्याख्यान किया “अजहि जट्ठवं"- इस वेदपद से अज, अर्थात् बकरे के द्वारा यज्ञ करना चाहिए। ऐसा प्रतिपादन करनेवाले पर्वत को सुनकर नारद ने कहा- “यहाँ इस सन्दर्भ में अज शब्द का अर्थ तीन वर्ष का पुराना अनाज, या जो फिर से उत्पन्न न हो- ऐसे जौ,
777 संवेगरंगशाला, गाथा ५७२१-५७५१.
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