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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 367
अग्नि के उपसर्ग में गजसुकुमाल की अन्तिम
आराधना की कथा संवेगरंगशाला के संस्तारक द्वार में यह बताया गया है कि जो साधक अपनी आत्मा को उपशम भाव में स्थित रखकर आश्रवों को रोकता है तथा अपने पापों की आलोचना करता है, उसकी आराधना विशुद्ध होती है। इस सम्बन्ध में संवेगरंगशाला में क्रमशः अग्नि एवं जल के उपसर्ग को समभाव से सहन करनेवाले गजसुकुमाल एवं अर्णिकापुत्र द्वारा की गई अन्तिम आराधना की कथा प्रस्तुत की गई है।74
द्वारिका नगरी में वासुदेव श्रीकृष्ण रहते थे। उनके गजसुकुमाल नामक एक छोटा भाई था। इच्छा न होने पर भी उसने माता देवकी और वासुदेव श्रीकृष्ण के अति आग्रह से सोमशर्मा नामक ब्राह्मण की पुत्री के साथ विवाह का प्रस्ताव स्वीकार किया। उसी दिन उसने नेमिनाथ भगवान् के पास जाकर धर्म-श्रवण किया तथा सर्वज्ञ परमात्मा द्वारा संसार का स्वरूप जानकर उसे वैराग्य उत्पन्न हुआ और रूप-लावण्य से युक्त तथा अल्पवयस्क होने पर भी वह चरम शरीरी महासत्वशाली गजसुकुमालमुनि बन गया। उसी दिन वह गजसुकुमालमुनि नेमिनाथ भगवान् से आज्ञा लेकर श्मशान में जाकर कायोत्सर्ग में स्थिर हो गए। किसी कारण वहाँ सोमशर्मा आया और मुनि को देखकर, 'यह वही है, जिसने मेरी पुत्री से विवाह का प्रस्ताव करके उसका त्याग किया है'- ऐसा विचारकर उसे तीव्र क्रोध उत्पन्न हुआ। मुनि को मारने की भावना से उसने उनके सिर पर मिट्टी की पाल बाँधी और पाल के अन्दर जलते हुए अंगारे डाल दिए। इस कारण मुनि का मस्तक अग्नि से जलने लगा। उस तीव्र वेदना की अवस्था में भी गजसुकुमाल शुभध्यान में स्थिर रहे। जीवों के प्रति क्षमा के भाव से अन्त में मुनि अन्तकृत केवली बनकर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हुए। गजसुकुमाल इस तरह अग्नि का उपसर्ग होने पर भी समभाव में स्थिर रहे और इस प्रकार उनकी अन्तिम आराधना सफल हुई।
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संवेगरंगशाला, गाथा ५३१४-५३२३, ५३२४-५३६५.
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