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306/ साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
२. रौद्रध्यान : मन, वचन और काया से हिंसादि के प्रति आसक्तिवाला होकर रौद्रध्यानवाला होता है। इसमें कषायों की तीव्रता होती है। इस ध्यान से भी व्यक्ति दुर्गति में जाता है। इसके भी निम्न चार भेद हैं
१. हिंसानुबन्धी - द्वेष-बुद्धि से प्रतिशोध लेने के पश्चात् प्रसन्नता का अनुभव करना।
२. मृषानुबन्धी - क्रोधादि के वशीभूत हो असत्य भाषण के पश्चात् हर्षाभिव्यक्तिः
३. स्तेयानुबन्धी - लोक-कषाय के वशीभूत होकर चौर्यकर्म करने के पश्चात् आनन्द-विभोर होना।
४. धनसंरक्षणानुबन्धी - संग्रह-लालसा के परिणामस्वरूप परिग्रह में गाढ़-आसक्ति रखकर उसमें बाधक तथ्यों पर क्रोध करना।
३. धर्मध्यान : इस ध्यान में व्यक्ति कषायों का त्यागकर शुभवृत्तियों में अपना ध्यान एकाग्र करता है। यह ध्यान धर्म या शुभ प्रवृत्तियों के प्रति अनुराग रखनेवाला होता है। कषायों की मन्दता होने से व्यक्ति में शुभ विचार उत्पन्न होते हैं। शुभ विचारों से सद्गति प्राप्त होती है। संवेगरंगशाला में धर्म-ध्यान के निम्न चार भेद कहे हैं
१. आज्ञा-विचय - इसमें वीतराग प्ररूपित जिनवाणी का चिन्तन करना होता है, जैसे- परमात्मा की आज्ञा है- “न राग करो और न द्वेष करो", क्योंकि राग और द्वेष- दोनों ही कर्मबन्ध के हेतु हैं, इसलिए त्याज्य हैं। परमात्मा की वाणी निर्दोष, निष्पाप, महान् अर्थवाली, त्रिकाल में अबाधित हितकर, अजेय, सत्य, मोहनाशक, गम्भीर, कर्णप्रिय एवं चिन्त्य महिमावाली होने से ग्रहण (चिन्तन) करने योग्य है।
२. अपायविचय-स्वयं के कषायादि दोषों का अवलोकन कर दोष-मुक्ति के उपायों का चिन्तन करना। इसमें व्यक्ति स्वयं के दुःखों का कारण दूसरों को नहीं मानकर स्वयं के पूर्व कर्मों को मानता है। इसमें इन्द्रिय-विषय, कषाय और आश्रवादि पच्चीस क्रियाओं के सेवन, अव्रतादि में वर्तन तथा नरकादि में जन्म के दुष्परिणामों का चिन्तन किया जाता है।
३. विपाकविचय-कर्मों के विपाक को चिन्तन करना, अर्थात् पूर्व कर्मो के उद्गत सुख-दुःखात्मक विभिन्न परिस्थितियों का चिन्तन करना विपाक-विचय धर्मध्यान है।
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